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कर्मफल का सिद्धान्त

 

कर्मफल का सिद्धान्त



भारतीय संस्कृति कर्मफल में विश्वास करती है ।। हमारे यहाँ कर्म की गति पर गहन विचार किया गया है और बताया गया है कि जो कुछ फल प्राप्त होता है, वह अपने कर्म के ही कारण होता हैः-


मनुष्याः कर्मलक्षणः म.भा. अश्वमेघ पर्व 43- 21
अर्थात् मनुष्य का लक्षण कर्म ही है ।। मनुष्य को कर्म करना चाहिए ।। कर्म करते हुए ही वह मनुष्य बनता है ।।

स्वकर्म निरतो यो हि स यशः प्राप्नुयान्महत् ।। महाभारत व.प.212- 16
जो अपने कर्म में संलग्न है, वही बड़े भारी यश को प्राप्त करता है ।।

ध्रुव न नाशोऽस्तिकृतस्य लोके (महाभारत व.प. 237- 27)
संसार में किये हुए कर्म का कभी नाश नहीं होता ।।

भारतीय संस्कृति में चित्रगुप्त की कल्पना की गई है, जो पल- पल में मनुष्य की अच्छे- बुरे कर्मों का लेखा- जोखा करता रहता है ।। मृत्यु के उपरांत शुभ- अशुभ कर्मों के बल पर उसे स्वर्ग या नर्क में जाना होता है ।। इस अलंकारिक कथन गहरी सत्यता है ।। गुप्त मन में हमारे सभी शुभ- अशुभ कार्यों की सूक्ष्म रेखाएँ अंकित होती रहती है ।। ये ही हमारी कर्म रेखा का निर्माण करती हैं ।। कहा गया है कर्म की रेखाएँ बिना फल दिये नहीं रहती ।। पाप पुण्य के सभी कर्मों का फल अवश्य देर सवेर मिलता है।।

कर्मों की तीन श्रेणियाँ मानी गई हैं- 1.संचित, 2. प्रारब्ध, 3.क्रियमाण ।। इन तीनों प्रकार के कर्मों का संचय निरन्तर हमारी संस्कार भूमिका में होता रहता है ।। मनुष्य की अन्तश्चेतना ऐसी निष्पक्ष, निर्मल, न्यायशील और विवेकवान योजना है जो अपने- पराये का भेद न कर सत्यनिष्ठ न्यायधीश की तरह भले- बुरे कार्य का विवरण अंकित करती रहती है।।

प्रारब्ध उन मानसिक संचित कर्मों को कहते हैं, जो स्वेच्छापूर्वक जानबूझकर तीव्र भावनाओं से प्रेरित होकर विशेष मनोयोग से किए जाते है ।। इसलिए इनके संस्कार बहुत बलवान होते है ।। कर्म का परिपाक लेकर जब फल बनता है तब वह प्रारब्ध कहा जाता है ।। साधारण कार्य तसवीर है ।। संचित कर्मों का फल मिलना संदिग्ध है, विरोधी परिस्थितियों से टकराकर वे नष्ट हो जाते हैं ।।
क्रियमाण कर्म शारीरिक हैं, जिनका फल प्रायः साथ- साथ ही मिलता रहता है ।। जिन शारीरिक कर्मों के पीछे कोई मानसिक गुत्थी नहीं होती केवल शरीर द्वारा शरीर के लिए ही किए जाते हैं, वे क्रियमाण कहलाते हैं ।।

इस प्रकार सब कर्मों का फल अवश्य मिलता है ।। कितने समय और कितने दिनों में फल प्राप्त होगा, इसके सम्बंध में कुछ नियत मर्यादा नहीं है ।। कर्म- फल आज, कल, परसों या जन्मों के अन्तर से भी मिल सकता है, किन्तु व मिलेगा अवश्य ।। यह निश्चय है ।। पुरुषार्थ की अवहेलना से जो असफलता मिलती है, उसे कदापि प्रारब्ध फल नही कहा जा सकता ।। कष्टों का स्वरूप अप्रिय अवश्य है, उनका तात्कालिक फल कटु होता है, पर ईश्वर की लीला ऐसी है कि अन्ततः वे जीव के लिए कल्याणकर और आनन्ददायी सिद्ध होते हैं ।।

भारतीय संस्कृति यह मानती है कि संसार में सत, रज, तम तीनों का मिश्रण है, तीनों प्रकार की वस्तुएँ मौजूद हैं ।। स्वयं अपने स्वभाव, रुचि और गुणों के अनुसार हम वैसी ही वस्तुएँ प्रकृति से एकत्रित कर लेते हैं ।। अच्छाई, बुराई, कालापन, सफेदी, धर्म, अधर्म, पाप, पुण्य, सुख, दुःख आदि सब संसार में बिखरे पड़े हैं ।। अपने स्वभावनुकूल तत्वों को प्रकृति से स्वतः खींच लेता है ।। अपनी मनोभावनाओं, रुचियाँ, गुप्त इच्छाओं को मनुष्य आमने- सामने वालों पर थोप देता है और उन्हें वैसा ही समझता है जैसा कि वह स्वयं है ।। हर उन्नत आत्मा का यह कर्तव्य है कि वह स्वयं आत्म- विकास करे, समाज से तमोगुण दूर करे, पापवृत्तियाँ को रोके और अच्छाइयों का, धर्म का, नीति और सत्य का प्रसार करे ।। अपने शुभ कर्मों द्वारा स्वयं उठे और साथ ही अपने आस- पास पवित्रता, उदारता, प्रेम, भ्रातृभाव, स्नेह, दया, गुण- दर्शन का वातावरण तैयार कर ले ।।

(भारतीय संस्कृति के आधारभूत तत्व पृ. सं. 2.30)

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