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मूर्तिपूजा

 

                      कर्मकाण्ड, परम्पराएँ, पूजा पद्धति  



भारतीय संस्कृति में प्रतीकवाद का महत्त्वपूर्ण स्थान है ।। सबके लिए सरल सीधी पूजा- पद्धति को आविष्कार करने का श्रेय भारत को ही प्राप्त है ।। पूजा- पद्धति की उपयोगिता और सरलता की दृष्टि से हिन्दू धर्म की तुलना अन्य सम्प्रदायों से नहीं हो सकती ।। हिन्दू धर्म में ऐसे वैज्ञानिक मूलभूत सिद्धांत दिखाई पड़ते हैं, जिनसे हिन्दुओं का कुशाग्र बुद्धि विवेक और मनोविज्ञान की अपूर्व जानकारी का पता चलता है ।। मूर्ति- पूजा ऐसी ही प्रतीक पद्धति है ।।


मूर्ति- पूजा क्या है? पत्थर, मिट्टी, धातु या चित्र इत्यादि की प्रतिमा को मध्यस्थ बनाकर हम सर्वव्यापी अनन्त शक्तियों और गुणों से सम्पन्न परमात्मा को अपने सम्मुख उपस्थित देखते हैं ।। निराकार ब्रह्म का मानस चित्र निर्माण करना कष्टसाध्य है ।। बड़े योगी, विचारक, तत्त्ववेत्ता सम्भव है यह कठिन कार्य कर दिखायें, किन्तु साधारण जन के जिए तो वह नितांत असम्भव सा है ।। भावुक भक्तों, विशेषतः नारी उपासकों ं के लिए किसी प्रकार की मूर्ति का आधार रहने से उपासना में बड़ी सहायता मिलती है ।। मानस चिन्तन और एकाग्रता की सुविधा को ध्यान में रखते हुए प्रतीक रूप में मूर्ति- पूजा की योजना बनी है ।। साधक अपनी श्रद्धा के अनुसार भगवान की कोई भी मूर्ति चुन लेता है और साधना अन्तःचेतना ऐसा अनुभव करती है मानो साक्षात् भगवान से हमारा मिलन हो रहा है ।।

मनीषियों का यह कथन सत्य हे कि इस प्रकार की मूर्ति- पूजा में भावना प्रधान और प्रतिमा गौण है, तो भी प्रतिमा को ही यह श्रेय देना पड़ेगा कि वह भगवान की भावनाओं का उत्प्रेरक और संचार विशेष रूप से हमारे अन्तःकरण में करती है ।। यों कोई चाहे, तो चाहे जब जहाँ भगवान को स्मरण कर सकता है, पर मन्दिर में जाकर प्रभु- प्रतिमा के सम्मुख अनायास ही जो आनंद प्राप्त होता है, वह बिना मन्दिर में जाये, चाहे, जब कठिनता से ही प्राप्त होगा ।। गंगा- तट पर बैठकर ईश्वरीय शक्तियों का जो चमत्कार मन में उत्पन्न होता है, वह अन्यत्र मुश्किल से ही हो सकता है ।।
   
मूर्ति- पूजा के साथ- साथ धर्म मार्ग में सिद्धांतानुसार प्रगति करने के लिए हमारे यहाँ त्याग और संयम पर बड़ा जोर दिया गया है ।। सोलह संस्कार, नाना प्रकार के धार्मिक कर्मकाण्ड, व्रत, जप, तप, पूजा, अनुष्ठान, तीर्थ यात्राएँ, दान, पुण्य, स्वाध्याय, सत्संग ऐसे ही दिव्य प्रयोजन हैं, जिनसे मनुष्य में संयम ऐसे ही दिव्य प्रयोजन हैं, जिनसे मनुष्य में संयम और व्यवस्था आती है ।। मन दृढ़ बनकर दिव्यत्व की ओर बढ़ता है ।। आध्यात्मिक नियंत्रण में रहने का अभ्यस्त बनता है ।।

मूर्ति- पूजा के पक्ष में प. दीनानाथ शर्मा के विचार बहुमूल्य हैं ।। शर्मा जी लिखते हैः-
''जड़ (मूल)ही सबका आधार हुआ करती है ।। जड़ सेवा के बिना किसी का भी कार्य नहीं चलता ।। दूसरे की आत्मा की प्रसन्नतापूर्वक उसके आधारभूत जड़ शरीर एवं उसके अंगों की सेवा करनी पड़ती है ।। परमात्मा की उपासना के लिए भी उसके आश्रय स्वरूप जड़ प्रकृति की पूजा करनी पड़ती है ।। हम वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, प्रकाश आदि की उपासना में प्रचुर लाभ उठाते हैं, तब मूर्ति- पूजा से क्यों घबराना चाहिए? उसके द्वारा तो आप अणु- अणु में व्यापक चेतन (सच्चिदानंद) की पूजा कर रहे होते हैं ।। आप जिस बुद्धि को या मन को आधारभूत करके परमात्मा का अध्ययन कर रहे होते हैं क्यों वे जड़ नहीं हैं? परमात्मा भी जड़ प्रकृति के बिना कुछ नहीं कर सकता, सृष्टि भी नहीं रच सकता ।। तब सिद्ध हुआ कि जड़ और चेतन का परस्पर संबंध है ।। तब परमात्मा भी किसी मूर्ति के बिना उपास्य कैसे हो सकता है?

'' हमारे यहाँ मूर्तियाँ मन्दिरों में स्थापित हैं, जिनमें भावुक जिज्ञासु पूजन, वन्दन अर्चन के लिए जाते हैं और ईश्वर की मूर्तियों पर चित्त एकाग्र करते हैं ।। घर में परिवार की नाना चिन्ताओं से भरे रहने के कारण पूजा, अर्चन, ध्यान इत्यादि इतनी तरह नहीं हो पाता, जितना मन्दिर के प्रशान्त स्वच्छ वातावरण में हो सकता है ।। अच्छे वातावरण का प्रभाव हमारी उत्तम वृत्तियों को शक्तिवान बनाने वाला है ।। मन्दिर के सात्विक वातावरण में कुप्रवृत्तियाँ स्वयं फीकी पड़ जाती हैं ।। इसलिए हिन्दू संस्कृति में मन्दिर की स्थापना को बड़ा महत्त्व दिया गया है ।।

कुछ व्यक्ति कहते हैं कि मन्दिरों में अनाचार होते हैं ।। उनकी संख्या दिन- प्रतिदिन बढ़ती जाती रही है ।। उन पर बहुत व्यय हो रहा है ।। अतः उन्हें समाप्त कर देना चाहिए ।। सम्भव है इनमें से कुछ आक्षेप सत्य हों, किन्तु मन्दिरों को समाप्त कर देने या सरकार द्वारा जब्त कर लेने मात्र से क्या अनाचार दूर हो जायेंगे? यदि किसी अंग में कोई विकार आ जाय, तो क्या उसे जड़मूल से नष्ट कर देना उचित है? कदापि नहीं ।। उसमें उचित परिष्कार और सुधार करना चाहिए ।। इसी बात की आवश्यकता आज हमारे मन्दिरों में है ।। मन्दिर स्वेच्छा नैतिक शिक्षण के केन्द्र रहें ।। उनमें पढ़े- लिखे निस्पृह पुजारी रखे जायें, जो मूर्ति- पूजा कराने के साथ- साथ जनता को धर्म- ग्रन्थों, आचार शास्त्रों, नीति, ज्ञान का शिक्षण भी दें और जिनका चरित्र जनता के लिए आदर्श रूप हो ।।

(भारतीय संस्कृति के आधारभूत तत्व पृ.सं.३.९- १०)

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