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विवेक को विजयी बनाया जाय

                                            विवेक को विजयी बनाया जाय



“परमात्माओं की तुलना में विवेक को महत्व
दूँगा। अनीति से प्राप्त सफलता की अपेक्षा, नीति पथ पर चलते हुए असफलता को शिरोधार्य करूँगा मनुष्य के मूल्याँकन की कसौटी उसकी सफलताओं, योग्यताओं एवं विभूतियों को नहीं, उसके सद्विचारों और सत्कर्मों को रखूँगा।

उचित अनुचित का, लाभ हानि का, निष्कर्ष निकालने और किधर चलना, किधर नहीं चलना इसका निर्णय करने के उपयुक्त बुद्धि भगवान ने मनुष्य को दी है। उसी के आधार पर उसकी गतिविधियाँ चलती भी हैं। पर देखा यह जाता है कि दैनिक जीवन की साधारण बातों में जो विवेक ठीक काम करता है वही महत्वपूर्ण समस्या सामने आने पर कुंठित हो जाता है। परम्पराओं की तुलना में तो किसी विरले का ही विवेक जागृत रहता है, अन्यथा आन्तरिक विरोध रहते हुए भी लोग पानी में बहते हुए तिनके की तरह अनिच्छित दिशा में बहने लगते हैं। भेड़ों का झुण्ड जिधर भी चल पड़े उसी ओर सब भेड़ें बढ़ती जाती हैं। एक भेड़ कुएँ में गिरती हुई अपने प्राण गँवाने लगती है। देखा−देखी की नकल बनाने की प्रवृत्ति बन्दर में पाई जाती है वह दूसरों को जैसा करते देखता है वैसा ही खुद भी करने लगता है। इस अन्धानुकरण की आदत को जब मनुष्यों में भी इतनी बुरी तरह घुसा देखा जाता है तो अनायास ही डार्विन की उस थ्योरी को मान लेने के लिए मन करता है जिसके अनुसार उसने यह सिद्ध करने की कोशिश की है कि आदमी बन्दर की औलाद है।

नशेबाजी का भेड़ियाधसान

समाज में प्रचलित कितनी ही प्रथाऐं ऐसी हैं जिनमें लाभ रत्ती भर भी नहीं हानि अनेक प्रकार से है पर एक की देखा−देखी दूसरा उसे करने लगता है। बीड़ी और चाय का प्रचार दिन−दिन बढ़ रहा है। छोटे−छोटे बच्चे बड़े शौक से उन्हें पीते हैं। सोचा यह जाता है कि यह चीजें बड़प्पन अथवा सभ्यता की निशानी हैं। इन्हें पीना एक फैशन की पूर्ति करना है और अपने को अमीर, धनवान साबित करना है। ऐसी ही कुछ भ्रान्तियों से प्रेरित होकर शौक, मौज, फैशन जैसी शेखीखोरी की भावना से एक की देखा−देखी दूसरा इन नशीली वस्तुओं को अपनाता है और अन्त में एक बुरी कुटेव के रूप में वह लत ऐसी बुरी तरह लग जाती है कि छुड़ाये नहीं छूटती। यह निर्विवाद सिद्ध हो चुका है कि तमाखू पीने की आदत से आदमी की जिन्दगी कम से कम दस वर्ष घट जाती है। कफ़, खाँसी, रक्त चाप, स्मरण शक्ति का नाश, वीर्य रोग, क्षय तथा केन्सर सरीखे रोग तमाखू पीने से उत्पन्न होते हैं। मुँह से साँस के साथ बदबू निकलती है और रोज इतने पैसे खर्च होते रहते हैं जिन्हें यदि इकट्ठे करके बैंक में जमा करते रहा जाता तो कई पीढ़ियों तक चलने वाला एक मकान उतने ही धन से बनाया जा सकता था।

चार आने प्रतिदिन तमाखू में खर्च करने वाला साल में 90 रुपये और तीस वर्ष भी इस लत में गुजारे तो 2700) खर्च करता है। तीस साल में कम से कम इतनी ही ब्याज तो जरूर मिल सकती है। यदि यह पैसे बचाकर रखे गये होते तो बुढ़ापे में 5400) की रकम तो बीड़ी से बचाकर ही रखी जा सकती थी और उसके द्वारा अन्तिम दिन आराम से गुजर सकते थे। चाय का खर्च और भी ज्यादा है। दो चार प्याले पी लेने पर चार आठ आने सहज ठंडे होते हैं। गठिया, मधुमेह, बहुमूत्र, दिल की धड़कन, रक्त विकार, अपच, मलावरोध, दाद, छाजन, मुँह के छाले, पायेरिया, बाल झड़ना आदि कितने ही रोग चाय पीने से होते हैं पैसा तो बीड़ी से भी ज्यादा खर्च होता है जो यदि बचा लिया गया होता तो उपरोक्त बीड़ी वाले क्रम से भी कहीं अधिक होता।

चाय, बीड़ी, भाँग, गाँजा, शराब, अफीम आदि सभी नशीली चीजें एक भयंकर दुर्व्यसन हैं। इनके द्वारा शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य नष्ट होता है और आर्थिक स्थिति पर बुरा प्रभाव पड़ता है। हर नशेबाज स्वभाव की दृष्टि से दिन−दिन घटिया आदमी बनता जाता है। क्रोध, आवेश, चिन्ता, निराशा, आलस, निर्दयता, अविश्वास आदि कितने ही मानसिक दुर्गुण उपज पड़ते हैं। समझाने पर या स्वयं विचार करने पर हर नशेबाज इस लत की बुराई को स्वीकार करता है पर विवेक की प्रखरता और साहस की सजीवता न होने से कर कुछ नहीं पाता। एक अन्ध परम्परा में अन्धी भेड़ की तरह बहता चला जाता है। क्या यही मनुष्य की बुद्धिमत्ता है?

कुरीतियों का अपव्यय

सामाजिक कुरीतियों से हिन्दू समाज इतना जर्जर हो रहा है कि इन विकृतियों के कारण जीवन−यापन कर सकना भी मध्य वर्ग के लोगों के लिए कठिन होता चला जा रहा है। बच्चों का विवाह एक नरभक्षी पिशाच की तरह हर अभिभावक के सिर पर नंगी तलवार लिये नाचता रहता है। विवाह के दिन जीवन भर की गाढ़ी कमाई के पैसों को होली की तरह फूँक देने के लिए हर किसी को विवश होना पड़ता है। घर में न हो तो कर्ज लेना पड़ता है। पीछे रहने वाले छोटे बच्चों के शिक्षण एवं पोषण में भारी कटौती करनी पड़ती है। दवादारू तक के लिए लोग मोहताज हो जाते हैं और गरीबी में बेमौत मरने के लिए लोग विवश होते हैं क्योंकि घर में जो कुछ गुँजाइश थी बड़े बच्चों के विवाह की होली में स्वाहा हो चुकी होती है। हत्यारा दहेज कसाई की−सी नंगी छुरी लेकर हमारी बच्चियों का खून पी जाने के लिए निर्भय होकर विचरण करता रहता है। कोई उसका विरोध तक करने का साहस नहीं करता। जैसे भेड़ियों को देखकर बकरी डर के मारे मिमियाना तक बंद कर देती है उसी प्रकार दहेज का अवसर आने पर बड़े−बड़े सुधारकों के मुँह पर भी ताले पड़ जाते हैं। कहते सुना जाता है—क्या करें—बात तो बुरी है, नासमझी की भी, पर सामाजिक प्रथा परम्परा को तोड़ें कैसे? लोग हमें क्या कहेंगे?

मृत्यु भोज, औसर मौसर, नेगचार, मुंडन, डस्टौन, जनेऊ और भी न जाने क्या−क्या ऊट−पटाँग काम करने के लिए लोग विवश होते रहते हैं और जो कुछ कमाते हैं उसका अधिकाँश भाग इन्हीं फिजूलखर्चियों में स्वाहा करते रहते हैं। जेवर बनवाने में रुपये में आठ आने हाथ रहते हैं, जान जोखिम, ईर्ष्या, अहंकार सुरक्षा की चिन्ता, ब्याज की हानि आदि अनेकों आपत्तियाँ उत्पन्न होती हैं फिर भी परम्परा जो है। सब लोग जैसा करते हैं वैसा ही हम क्यों न करें? न करेंगे तो अपनी हेटी होगी, बात बिगड़ेगी, नाक कटेगी, ऐसा सोचते रहने वाले इस भेड़ियाधसान को पार कर ही कैसे सकते हैं? विवेक का परम्पराओं की तुलना में परास्त हो जाना वैसा ही आश्चर्यजनक है जैसा बकरे का शेर की गरदन मरोड़ देना। आश्चर्य की बात तो अवश्य है पर हो यही रहा है। विवेकशीलता झक मारती और परम्परा की विजयवैजन्ती पहने फिरती है। बिल्ली सकपका कर एक कोने में बैठी है और चुहिया चाबुक चमकाती है। यह कौतूहल किसी सरकस में नहीं, हमारे व्यवहारिक जीवन में आये दिन होता रहता है और हम उसके विरुद्ध आवाज तक नहीं उठाते, सोचते तक नहीं।

विवेक को विजयी बनावें

युग−निर्माण के सत्संकल्प में विवेक को विजयी बनाने का शंखनाद है। हम हर बात को उचित अनुचित को कसौटी पर कसना सीखें। जो उचित हो वही करें, जो ग्राह्य हो वही ग्रहण करें, जो करने लायक हो उसी को करें लोग क्या कहते हैं, क्या कहेंगे, इस प्रश्न पर विचार करते समय हमें सोचना होगा कि लोग दो तरह के हैं एक विचारशील दूसरे अविचारी। विवेकशील पाँच व्यक्तियों की सम्मति अविचारी पाँच लाख व्यक्तियों के समान वजन रखती है। विवेकशीलों की संख्या सदा ही थोड़ी रही है वन में सिंह थोड़े और सियार बहुत रहते हैं, एक सिंह की दहाड़, हजार सियारों की हुँआ हुँआ से अधिक महत्व रखती है। सस्ती वाहवाही और उथली निंदा करने वाले अविचारी लोगों से हमारा समाज भरा पड़ा है, उनके संकेतों पर चलने लगा जाय तो इस दुनिया में जीवित रह सकना मुश्किल है। कहते हैं कि "एक बार एक टट्टू पर बाप बेटे दोनों चढ़े जा रहे थे लोगों ने देखा तो कहा—कैसे निर्दयी हैं घोड़े को मार लेंगे। फिर दोनों पैदल चलने लगे तो देखने वालों ने कहा—कैसे मूर्ख हैं घोड़ा होते हुए भी दोनों पैदल चलते हैं। इस पर बेटा चढ़ा और बाप पैदल चलने लगा। दर्शक बोले—लड़का कैसा नालायक है बाप को पैदल चलाता है खुद चढ़ा हुआ है। तब बाप चढ़ गया और बेटा पैदल चला। देखने वाले बोले—बुड्ढा कैसा निष्ठुर है बेटे पर तरस नहीं खाता। अन्त में बाप बेटों ने निश्चय किया इन सस्ती निंदा प्रशंसा करने वालों की बात को दो कौड़ी का समझा जाय और वह किया जाय जो हम लोगों को उचित जँचे। ऐसा ही निर्णय हमें भी करना चाहिए।" अन्यथा ज्यादा खर्च करने पर इतराने का और कम खर्च करने पर कंजूसी का इल्जाम लगाने वाले तो हर हालत में कुछ न कुछ कहते ही रहेंगे।

सफलता बनाम असफलता

लोगों की दृष्टि में सफलता का ही मूल्य है। जो सफल हो गया, उसी की प्रशंसा की जाती है। देखने वाले यह नहीं देखते कि सफलता नीतिपूर्वक प्राप्त की गई या अनीतिपूर्वक। झूठे, बेईमान, दगाबाज, चोर, लुटेरे भी बहुत धन कमा सकते हैं। किसी चालाकी से कोई बड़ा पद या गौरव भी प्राप्त कर सकते हैं। आप लोग तो उस कमाई और विभूति मात्र को ही देख कर उसकी प्रशंसा करने लगते हैं और समर्थन भी। पर सोचना चाहिए कि क्या यह तरीका उचित है? सफलता की अपेक्षा नीति श्रेष्ठ है। यदि नीति पर चलते हुए परिस्थितिवश असफलता मिली है तो वह भी कम गौरव की बात नहीं। नीति का स्थायी महत्व है, सफलता का अस्थायी। सफलता न मिलने से भौतिक जीवन के उत्कर्ष में थोड़ी असुविधा रह सकती है पर नीति त्याग देने पर तो लोक परलोक आत्म−सन्तोष, चरित्र, धर्म, कर्त्तव्य और लोक हित सभी कुछ नष्ट हो जाता है। ईसा मसीह ने क्रास पर चढ़ कर पराजय स्वीकार की पर नीति का परित्याग नहीं किया। शिवाजी, राणा प्रताप, बन्दा वैरागी, गुरु गोविन्द सिंह, लक्ष्मीबाई, सुभाष बोस आदि को पराजय का ही मुँह देखना पड़ा पर उनकी वह पराजय भी विजय से अधिक महत्वपूर्ण थी। धर्म और सदाचार पर दृढ़ रहने वाले सफलता में नहीं कर्त्तव्य पालन में प्रसन्नता अनुभव करते हैं और इसी दृढ़ता को स्थिर रख सकने को एक बड़ी भारी सफलता मानते हैं। अनीति और असफलता में से यदि एक को चुनना पड़े तो असफलता को ही पसंद करना चाहिए, अनीति को नहीं। जल्दी सफलता प्राप्त करने के लोभ में अनीति के मार्ग पर चल पड़ना ऐसी बड़ी भूल है जिसके लिए सदा पश्चात्ताप ही करना पड़ता है।

प्रतिष्ठा और प्रशंसा

जिस वस्तु से प्रतिष्ठा बढ़ती है, प्रशंसा होती है उसी काम को करने के लिए उसी मार्ग पर चलने के लिए लोगों को प्रोत्साहन मिलता है। हम प्रशंसा और निन्दा करने में, सम्मान और तिरस्कार करने में थोड़ी सावधानी बरतें तो लोगों को कुमार्ग पर न चलने और सत्पथ अपनाने में बहुत हद तक प्रेरणा दे सकते हैं। आमतौर से उनकी प्रशंसा की जाती है जिनने विशेष सफलता, योग्यता, सम्पदा एवं विभूति एकत्रित कर ली है। चमत्कार को नमस्कार किया जाता है। यह तरीका गलत है। विभूतियों को लोग केवल अपनी सुख सुविधा के लिए ही एकत्रित नहीं करते वरन् प्रतिष्ठा प्राप्त करना भी उद्देश्य होता है। जबकि धन वैभव वालों को ही समाज में प्रतिष्ठा मिलती है तो मान का भूखा मनुष्य किसी भी कीमत पर उसे प्राप्त करने के लिए आतुर हो उठता है। "अनीति और अपराधों की बढ़ोतरी का एक प्रमुख कारण यह है कि अन्धी जनता हर सफलता की प्रशंसा करती है और हर असफलता को तिरस्कार की दृष्टि से देखती है।" धन के प्रति, धनी के प्रति आदर बुद्धि तभी रहनी चाहिए जब वह नीति और सदाचारपूर्वक कमाया गया हो। यदि अधर्म और अनीति से उपार्जित धन द्वारा धनी बने हुए व्यक्ति के प्रति हम आदर बुद्धि रखते हैं तो इससे उस प्रकार के अपराध करने की प्रकृति को प्रोत्साहन ही मिलता है और इस दृष्टि से उस अपराध वृद्धि में हम स्वयं भी भागीदार बनते हैं।

सहयोग और प्रोत्साहन

दूसरों को सन्मार्ग पर चलाने का, कुमार्ग की ओर प्रोत्साहित करने का एक बहुत बड़ा साधन हमारे पास मौजूद है वह है आदर और अनादर। जिस प्रकार वोट देना एक छोटी घटना मात्र है पर उसका परिणाम दूरगामी होता है उसी प्रकार आदर के प्रकटीकरण का भी दूरगामी परिणाम संभव है। थोड़े से वोट चुनाव संतुलन को इधर से उधर कर सकते हैं और उस चुने हुए व्यक्ति का व्यक्तित्व किसी महत्वपूर्ण स्थान पर पहुँच कर राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्रों में अप्रत्याशित भूमिका सम्पादन कर सकता है। थोड़े से वोट व्यापक क्षेत्र में अपना प्रभाव दिखा सकते हैं और अनहोनी संभावनाऐं साकार बना सकते हैं उसी प्रकार हमारी आदर बुद्धि यदि विवेकपूर्ण भूमिका प्रस्तुत करे तो कितने ही कुमार्ग पर बढ़ते हुए कदम रुक सकते हैं और कितने ही सन्मार्ग की ओर चलते हुए झिझकने वाले पथिक प्रेरणा और प्रोत्साहन पाकर उस दिशा में तत्परतापूर्वक अग्रसर हो सकते हैं।

जिन लोगों ने बाधाओं को सहते हुए भी अपने जीवन में कुछ आदर्श उपस्थित किये हैं, उनका सार्वजनिक सम्मान होना चाहिए, उनकी प्रशंसा मुक्त कण्ठ से की जानी चाहिए और जो लोग निन्दनीय मार्गों द्वारा उन्नति कर रहे हैं उनकी प्रशंसा एवं सहायता किसी भी रूप में नहीं करनी चाहिए। अवाँछनीय कार्या में सम्मिलित होना भी एक प्रकार से उन्हें प्रोत्साहन देना ही है क्योंकि श्रेष्ठ पुरुषों की उपस्थिति मात्र से लोग उस कार्य में उनका समर्थन मान लेते हैं और फिर स्वयं भी उसका सहयोग करने लगते हैं। इस प्रकार अनुचित कार्यों में हमारा प्रत्यक्ष और परोक्ष समर्थन अन्ततः उन्हें बढ़ाने वाला ही सिद्ध होता है।

मनुष्य के मूल्यांकन की कसौटी

हमें मनुष्य का मूल्याँकन उसकी सफलताओं एवं विभूतियों से नहीं वरन् उस नीति और गतिविधि के आधार पर करना चाहिए जिसके आधार पर वह सफलता प्राप्त की गई। बेईमानी से करोड़पति बना व्यक्ति भी हमारी दृष्टि में तिरस्कृत होना चाहिए और वह असफल और गरीब व्यक्ति जिसने विपन्न परिस्थितियों में भी जीवन के उच्च आदर्शों की रक्षा की उसे प्रशंसा, प्रतिष्ठा, श्रद्धा सम्मान और सहयोग सभी कुछ प्रदान किया जाना चाहिए। यह याद रखने की बात है कि जब तक जनता का, निन्दा प्रशंसा का, आदर तिरस्कार का मापदंड न बदलेगा तब तक गुंडे मूँछों पर ताव देकर अपनी सफलता पर गर्व करते हुए दिन−दिन अधिक उच्छृंखल होते चलेंगे और सदाचार के कारण सीमित सफलता या असफलता प्राप्त करने वाले खिन्न और निराश रह कर सत्पथ से विचलित होने लगेंगे। युग−निर्माण संकल्प में यह प्रबल प्रेरणा प्रस्तुत की गई है कि हम मनुष्य के मूल्याँकन की कसौटी उसकी सफलताओं को नहीं सज्जनता और आदर्शवादिता को ही रखें।

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