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कर्मफल का सिद्धान्त

 

                           

कर्मफल का सिद्धान्त


व्याख्यान का उद्देश्य:-

(१) कर्मफल सुनिश्चित है यह तथ्य भलीभाँति मस्तिष्क में स्थापित हो जाए।
(२) सत्कर्म की उपयोगिता एवं औचित्य को समझते हुए सदैव सत्कर्म के लिए प्रेरित हो एवं दुष्कर्मों से डरें, बचें।
(३) बुरे विचार एवं गलत कार्यों पर ब्रेक(रोक) लग सके।
(४) बुरे विचार व कार्य करते समय व्यक्ति ईश्वर से डरे।

व्याख्यान का क्रम:-

हम ईश्वर को सर्वव्यापी न्यायकारी मानकर उनके अनुशासन को अपने जीवन में उतारेंगे।
 ‘‘मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है।’’
१.    संसार को ईश्वर ने बनाया है। उसकी व्यवस्था एवं संचालन हेतु विधि-विधान भी उन्होंने बनाया है। हर व्यक्ति सुखी रहना चाहता है। इस संसार में सुखपूर्वक रहने हेतु मानव को उन विधि विधानों की व्यवस्था को समझना अनिवार्य है।
२.    अनेक ईश्वरीय विधानों में एक महत्वपूर्ण विधान कर्मफल का सिद्धाँत है। उपासना पद्धति एवं धार्मिक मान्यताएँ भले ही विभिन्न धर्म-सम्प्रदायों में अलग-अलग हों परन्तु सभी ने कर्मफल की अनिवार्यता को मान्यता दी है। भारतीय संस्कृति के अनुसार मान्यताएँ-१. कर्मफल, २. पुनर्जन्म, ३. आत्मा की अमरता आदि महत्वपूर्ण है।
३.    कर्मफल का विधान अर्थात् जैसा कर्म वैसा फल। मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है। कर्म प्रधान विश्वरचि राखा, जो जस करहिं सो तस फल चाखा।
४.    कर्मों का फल तुरन्त नहीं मिलता इससे सदाचारी व्यक्तियों के दु:खी जीवन जीने एवं दुष्ट दुराचारी व्यक्तियों को मौज मजा करते देखा जाने पर कर्मफल के सिद्धाँत पर एकाएक विश्वास नहीं होता।
५.    कर्मों का फल तत्काल नहीं मिलने के कारण-१. फल को परिपक्व होने में समय लगता है। २. ईश्वर व्यक्ति के धीरज की तथा स्वभाव चरित्र की परीक्षा लेते हैं।
६.    कर्मों का लेखा-जोखा रखने हेतु चित्रगुप्त (अन्त:करण में गुप्त चित्र) गुप्त रूप से चित्त में चित्रण करता रहता है।
जैसे- (क)  ग्रामोफोन का बजना, (ख)  आशुलिपिक बहुत बड़ी सामग्री को छोटी रेखाओं में बदल देता है।
(ग)     फिल्मों में बड़े चित्रों को छोटे कैसेट में जैसे बदल दिया जाता है, वैसे ही अचेतन मन में प्रत्येक कर्म व सोच अंकित होती रहती है। निष्पक्ष न्यायाधीश की भाँति अन्तश्चेतना चित्त में ज्यों का त्यों कर्म रेखा को अंकित करती रहती है।
(घ)    डॉ. बीवेन्स द्वारा शोध-मानव मस्तिष्क में ग्रे मेटर को सूक्ष्मदर्शी यन्त्र से देखने पर पता चलता है कि एक-एक परमाणु में अगणित रेखाएँ हैं। अक्रिय आलसी एवं विचार शून्य प्राणियों में कम रेखाएँ तथा कर्मनिष्ठ एवं विचारवानों में अधिक कर्म रेखाएँ होती हैं। समझदार ज्ञानी व्यक्ति छोटे दुष्कर्म करके भी बड़े पाप का भागी होता है। अनजान और कम समझदार को उसी कर्म का फल हल्के स्तर का मिलता है। उदाहरण:-मजदूर, किसान व पेशेवर हत्यारा को एक ही कर्म (हत्या) की अलग-अलग सजा मिलना।
(ङ)     अन्तश्चेतना देवता एवं बाह्य मन राक्षस की भाँति होते हैं। चित्रगुप्त देवता के देश में रूपयों की गिनती, तीर्थयात्रा, कथावार्ता या भौतिक चीजों से कर्म का माप नहीं बल्कि इच्छा व भावना के अनुसार पाप-पुण्य का लेखा-जोखा होती है। अर्जुन को महाभारत के युद्ध में असंख्य लोगों को मार देने पर भी कोई पाप नहीं लगा क्योंकि उन्होंने धर्म युद्ध किया था।
७. इसी आधार पर कर्मों का फल पाप और पुण्य के रूप में प्राप्त होता है।
कर्म के लेख मिटे न रे भाई, लाख करो चतुराई।
जैसी करनी वैसा फल, आज नहीं तो निश्चय कल।
एकादशी करो या तीजा, बुरे काम का बुरा नतीजा।
८. लेकिन कर्मो का फल तुरन्त नहीं मिलता। जैस- फसल का पकना, अदालत का फैसला, पहलवान, विद्वान तुरंत नहीं बनते हैं। वैसे ही दूध से घी बनने की प्रक्रिया की भांति कर्मबीज पकता है तब फिर फल देता है। किन्तु फल मिलता अवश्य है।
९. कर्मों का फल अनिवार्य है।
जैसे:- गर्भ के बालक का जन्म होना अनिवार्य है। भगवान राम ने बालि को छुपकर मारा था, फिर कृष्ण रूप में अवतरित हुए श्रीराम को बहेलिये के रूप में बालि ने मारा था। भीष्म पितामह का मृत्युशैय्या पर द्रौपदी के साथ संवाद में बताना कि शरीर में तीरों के द्वारा रक्त रिसना कर्मफल है। राजा दशरथ का पुत्र शोक में प्राण त्यागना भी उनका कर्मफल था। कर्मफल से भगवान भी नहीं बचते तो सामान्य मनुष्य की बात क्या?
१०. कर्मों की प्रकृति के आधार पर ही उसका फल सुनिश्चित होता है।
कर्म तीन प्रकार के होते हैं :- १. संचित, २. प्रारब्ध, ३. क्रियमाण।
(१)  संचित कर्म :-जो दबाव में, बेमन से, परिस्थितिवश किया जाए ऐसे कर्मों का फल १००० वर्ष तक भी संचित रह जाता है। इस कर्म को मन से नहीं किया जाता। इसका फल हल्का धुंधला और कभी-कभी विपरीत परिस्थितियों से टकराकर समाप्त भी हो जाता है।
(२) प्रारब्ध कर्म :-तीव्र मानसिकता पूर्ण मनोयोग से योजनाबद्ध तरीके से तीव्र विचार एवं भावनापूर्वक किये जाने वाले कर्म। इसका फल अनिवार्य है, पर समय निश्चित नहीं है। इसी जीवन में भी मिलता है और अगले जन्म में भी मिल सकता है।
(३)  क्रियमाण कर्म :- शारीरिक कर्म जो तत्काल फल देने वाले होते हैं। जैसे- किसी को गाली देना, मारना। क्रिया के बदले में तुरंत प्रतिक्रिया होती है।

११.     काहू न कोउ सुख दु:ख कर दाता।
        निज निज कर्म भोग सब भ्राता।

    मानव अपने सुख दु:ख का कारण स्वयं ही होता है। धोखा देंगे तो धोखा खाएंगे-दो मित्रों की कहानी। हमारी वर्तमान परिस्थितियाँ दु:ख या सुख सबका कारण अंतत: हम ही हैं। अत: इसके लिए किसी को दोष देना व्यर्थ है।
१२.     तीन प्रकार के दु:ख:-

(१)  दैहिक-शारीरिक, (२)  दैविक-मानसिक, (३)  भौतिक-सामूहिक आकस्मिक दुर्घटनाएँ दैवी प्रकोप आदि।
१३. दु:खों को हल्का करने का उपाय :-

    मन्त्र जप, ध्यान, अनुष्ठान, साधना-उपासना से मानसिक व सूक्ष्म अन्त: प्रकृति व बाह्य प्रकृति का शोधन होती है। दु:खों, प्रतिकूलताओं को सहने की क्षमता बढ़ जाती है। दु:खों से घबराएँ नहीं, इससे हमारी आत्मा निष्कलुष, उज्जवल, सफेद चादर की भाँति हो जाती है।

१४. विशेष :-
१.    सार्वभौम पाप-अपनी क्षमताओं को बह जाने देना।
२.    अन्त:चेतना या ईश चेतना की अवहेलना बड़ा पाप है।
३.    कर्म के बन्धन तथा उससे मुक्ति के उपाय-सुख व दु:ख दोनों ही स्थिति में कोई प्रतिक्रिया न करके उस कड़ी को आगे बढ़ाने से रोकना। सुख को योग एवं दु:ख को तप की दृष्टि से देखें व उसके प्रति सृजनात्मक दृष्टि रखें। सुख के क्षण में इतराएँ नहीं। दु:ख के समय घबराएँ नहीं।
४. दु:ख या विपत्ति हमेशा कर्मों का फल नहीं होती बल्कि हमारी परीक्षा के लिए भी आती है। इनसे संघर्ष करके हमारा व्यक्तित्व चमकदार बनता है। इसलिए दु:खों व प्रतिकूलताओं के समय धीरज रखें डटकर उसका मुकाबला करें। इसके बाद ईश्वरीय न्याय के अनुसार आपको अनुकूलता रूपी प्रमोशन मिलेगा ही।
५. दु:ख, रोग, शोक हमारे जीवन की शुद्धि करके हमें पुन: तरोताजा कर देते हैं। अत: न उससे घबराएँ, न भागें, न ही किसी को कोसें।

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