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वर्ण व्यवस्था कर्म के आधार पर

 वर्ण- व्यवस्था में वंश या कुल प्रधान नहीं ।। कर्म प्रधान है ।। अकर्म करने से उच्च कुल में जन्म लेने वाला भी पतित हो जाता है और श्रेष्ठ कर्म करने वाले तथाकथित नीच कुल में जन्म लेने वाले भी उच्च बनते हैं ।। वस्तुतः कोई कुल न तो उच्च है और न नीच ।। जिस वंश में श्रेष्ठ परम्पराए प्रचलित रहती हैं, सत्कर्म होते हैं, सज्जन और सेवा भावी सत्पुरुष उत्पन्न होते हैं, उन्हीं को ब्रह्म वंश कह कर सम्मानित करते हैं और जहाँ निकृष्ट परम्परायें चल पड़ती हैं, कुकर्म होते हैं और दुष्ट दुर्गुणी जन्मते हैं, वही नीच कुल कहा जाता है ।।


यह परम्पराएँ बदलने पर वंश की उत्कृष्टता निकृष्टता भी बदल जाती है ।। वर्ण- व्यवस्था जन्म के आधार पर नहीं कर्म के माध्यम से ही बनी है ।।

एकवर्ण मिदं पूर्व विश्वमासीद् युधिष्ठिर ।।
कर्म क्रिया विभेदन चातुर्वर्ण्यं प्रतिष्ठितम्॥
सर्वे वै योनिजा मर्त्याः सर्वे मूत्रपुरोषजाः ।।
एकेन्दि्रयेन्द्रियार्थवश्च तस्माच्छील गुणैद्विजः ।।
शूद्रोऽपि शील सम्पन्नों गुणवान् ब्राह्णो भवेत् ।।
ब्राह्णोऽपि क्रियाहीनःशूद्रात् प्रत्यवरो भवेत्॥ (महाभारत वन पर्व)

पहले एक ही वर्ण था पीछे गुण, कर्म भेद से चार बने ।। सभी लोग एक ही प्रकार से पैदा होते हैं ।। सभी की एक सी इन्द्रियाँ हैं ।। इसलिए जन्म से जाति मानना उचित नहीं हैं ।। यदि शूद्र अच्छे कर्म करता है तो उसे ब्राह्मण ही कहना चाहिए और कर्तव्यच्युत ब्राह्मण को शूद्र से भी नीचा मानना चाहिए ।।
क्षत्रियात् जातमेवं तु विद्याद् वैश्यात् तथैव च॥ (मनुस्मृति)

आचारण बदलने से शूद्र ब्राह्मण हो सकता है और ब्राह्मण शूद्र ।। यही बात क्षत्रिय तथा वैश्य पर भी लागू होती है ।।
आचारहीनं न पुनन्ति वेदाः ।। (वशिष्ठ स्मृति)

आचरण हीन को वेद भी पवित्र नहीं करते ।।
वेदाध्ययनमप्येत ब्राह्मण्यं प्रतिपद्यते ।।
विप्रवद्वैश्यराजन्यौ राक्षसा रावण दया॥
शवृद चांडाल दासाशाच लुब्धकाभीर धीवराः ।।
येन्येऽपि वृषलाः केचित्तेपि वेदान धीयते॥
शूद्रा देशान्तरं गत्त्वा ब्राह्मण्यं श्रिता ।।
व्यापाराकार भाषद्यैविप्रतुल्यैः प्रकल्पितैः॥ (भविष्य पुराण)

ब्राह्मण की भाँति क्षत्रिय और वैश्च भी वेदों का अध्ययन करके ब्राह्मणत्व को प्राप्त कर लेता है ।। रावण आदि राक्षस, श्वाद, चाण्डाल, दास, लुब्धक, आभीर, धीवर आदि के समान वृषल (वर्णसंकर) जाति वाले भी वेदों का अध्ययन कर लेते हैं ।। शूद्र लोग दूसरे देशों में जाकर और ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि का आश्रय प्राप्त करके ब्राह्मणों के व्यापार, आकार और भाषा आदि का अभ्यास करके ब्राह्मण ही कहलाने लगते हैं ।।
जातिरिति च ।। न चर्मणो न रक्तस्य मांसस्य न चास्थिनः ।। न जातिरात्मनो जातिव्यवहार प्रकल्पिता॥ (निरावलम्बोपनिषद्)

जाति चमड़े की नहीं होती, रक्त, माँस की नहीं होती, हड्डियों की नहीं होती, आत्मा की नहीं होती ।। वह तो मात्र लोक- व्यवस्था के लिये कल्पित कर ली गई ।।
अनभ्यासेन वेदानामाचारस्य च वर्जनात् ।।
आलस्यात् अन्न दोषाच्च मृत्युर्विंप्रान् जिघांसति॥ (मनु.)

वेदों का अभ्यास न करने से, आचार छोड़ देने से, कुधान्य खाने से ब्राह्मण की मृत्यु हो जाती है ।।
अनध्यापन शीलं दच सदाचार बिलंघनम् ।।
सालस च दुरन्नाहं ब्राह्मणं बाधते यमः॥
स्वाध्याय न करने से, आलस्य से ओर कुधान्य खाने से ब्राह्मण का पतन हो जाता है ।।

(

भारतीय संस्कृति के आधारभूत तत्व पृ. सं.४.२०)

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