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स्वस्थ शरीर, स्वच्छ मन, सभ्य समाज

इस सुरदुर्लभ मानव शरीर में प्राप्त हो सकने वाली शुभ सम्वेदनाओं में अवरोध उत्पन्न न हो उसके लिए यह आवश्यक है कि हमारी गतिशीलता के द्वार खुले रहें। शरीर के स्वस्थ, मन के स्वच्छ, समाज के सभ्य रहने पर ही हम उस आनन्द को प्राप्त कर सकते हैं, उस लक्ष को पूर्ण कर सकते हैं जिसके लिए यह जन्म हमें मिला है। यह तीन ही विभूतियाँ इस संसार में हैं, इन्हीं के आधार पर अन्य सब प्रकार की सम्पदायें उपलब्ध होती हैं। जिसके पास पारस होगा उसे धन की क्या कमी रहेगी? जिसके पास अमृत होगा उसे मृत्यु से क्यों डरना पड़ेगा? जिसके घर में कल्पवृक्ष होगा उसकी कोई कामना क्यों अपूर्ण रहेगी? स्वस्थ शरीर, स्वच्छ मन और सभ्य समाज की गणना पारस, अमृत और कल्पवृक्ष से की जा सकती है। पुराणों में वर्णित ये तीन विभूतियाँ चाहे काल्पनिक ही सिद्ध क्यों न हों पर यह प्रत्यक्ष विभूतियाँ ऐसी हैं जिन का सत्परिणाम हाथों हाथ देखा जा सकता है।
सुरक्षा और सदुपयोग
हर वस्तु की सुरक्षा उसके सदुपयोग पर निर्भर है। घड़ी कितनी ही कीमती क्यों न हो यदि उसे बेहिसाब छेड़ते रहा जायेगा तो बेचारी खराब हो ही जायगी। अनियमितताओं का दबाव कोई भी वस्तु देर तक बर्दाश्त नहीं कर सकती। देर तक सुरक्षित रखना हो तो सावधानी और नियमितता का ध्यान रखना पड़ेगा। शरीर, मन और समाज के बारे में भी यही बात है। इन तीनों में स्वभावतः कोई खास बुराई या कमी नहीं है, परमात्मा ने यह तीनों ही बड़ी बुद्धिमत्ता के साथ रची हैं और इस योग्य बनाई हैं कि इनके आधार पर आत्मा भूलोक में ही स्वर्गलोक का आनन्द प्राप्त कर सके। किन्तु अनियमितताओं से तो सभी को हारना पड़ता है। हमारे दोषपूर्ण व्यवहार के कारण यह सब कुछ उलटा हो जाता है। जो सामग्री सुख शान्ति के साधनों के रूप में विनिर्मित और उपलब्ध हुई थी वह उलटी दुख और अशान्ति का हेतु बन जाती है।
असंयम ही रोग का कारण
स्वास्थ्य संयम पर निर्भर है। इन्द्रियों का संयम, आहार का संयम, ब्रह्मचर्य का संयम, दिनचर्या का संयम, उत्तेजनाओं का संयम यदि रखा जा सके तो फिर स्वास्थ्य बिगड़ने का प्रारब्धजन्य कर्म भोगों के अतिरिक्त और कोई कारण शेष नहीं रह जाता। यदि संयम साध लिया जाय तो गरीबी में दिन काटने वाला, घटिया आहार पाकर भी निरोग और दीर्घजीवी रह सकता है। इसके विपरीत असंयमी व्यक्ति विपुल धनवान होकर मूल्यवान आहार और औषधियों का सहारा मिलने पर भी रोगों से ग्रसित बना रहेगा। कमजोरी और बीमारी का अभिशाप असंयम के दंड स्वरूप मिलता है। यदि इन आपत्तियों से छूटना हो तो अपनी उच्छृंखल आदतों को संयमित करना पड़ेगा। इसके बिना स्वास्थ्य सुधार के जितने भी उपाय किये जायेंगे वे क्षणिक चमत्कार भले ही दिखा दें अन्ततः असफल ही रहेंगे। कोई औषधि कोई पद्धति ऐसी नहीं है जो असंयम के रहते हुए आरोग्य को सुरक्षित रख सके। जिसने संयम साध लिया उसके लिए उपयोगी आहार का कोई विशेष महत्त्व नहीं रह जाता। घास खाकर घोड़ा, पत्ती खाकर हाथी, मैला खाकर सुअर यदि बलवान रह सकता है तो कोई कारण नहीं कि अन्न शाक और दूध जैसे उत्तम पदार्थ प्राप्त करके भी मनुष्य निरोग एवं दीर्घजीवी न रह सके। असंयम ही वह असुर है जो हमारी स्वास्थ्य संपदा को सब प्रकार चौपट किये दे रहा है। इसे मार भगाने का व्यापक अभियान यदि आरंभ किया जाय तो ही स्वास्थ्य की समस्या हल हो सकेगी। अस्पताल और डाक्टर तो क्षणिक उपचार कर सकते हैं, तात्कालिक लाभ दिखा सकते हैं। आरोग्य तो हमारी आदतों पर निर्भर है, यदि जीवन-यापन संबंधी आदतें बिगड़ी हुई हैं तो निरोगता को स्थिर रख सकना किसी भी प्रकार संभव न होगा।
मानसिक आरोग्य का आधार
शरीर रोगी होने से देह दुख पाती है; मन रोगी होने पर हमारा अन्तःकरण नरक की आग में झुलसता रहता है। कई व्यक्ति देह से तो निरोग दीखते हैं पर भीतर ही भीतर इतने अशान्त और उद्विग्न रहते हैं कि उनका कष्ट रोगग्रस्तों से भी कहीं अधिक दिखाई पड़ता है। ईर्ष्या द्वेष, क्रोध, प्रतिशोध की आग में जो लोग जलते रहते हैं उन्हें आग से जलने पर छाले पड़े हुए रोगी की अपेक्षा अधिक अशान्ति और उद्विग्नता रहती है। घाटा, अपमान, भय, आशंका, चिन्ता, शोक, असफलता, निराशा आदि कारणों से खिन्न बने हुए मन में इतनी गहरी व्यथा होती है कि उससे छूटने के लिए कई तो आत्म-हत्या तक कर बैठते हैं और कइयों से उसी उद्वेग में ऐसे कुकृत्य बन पड़ते हैं जिनके लिए उन्हें जीवन भर पश्चात्ताप करना पड़ता है। ओछी तबियत के कुछ आदमी हर किसी को बुरा समझने, हर किसी में बुराई ढूँढ़ने के आदी होते हैं, उन्हें बुराई के अतिरिक्त और कुछ कहीं भी-दीख नहीं पड़ता। ऐसे लोगों को यह दुनिया काली डरावनी रात की तरह और हर आदमी प्रेत-पिशाच की तरह भयंकर आकृति धारण किये चलता-फिरता नजर आता है। इस प्रकार की मनोभूमि के लोगों की दयनीय दशा का अनुमान लगाने में भी व्यथा होती है।
क्रूर, निर्दयी, अहंकारी, उद्दंड, दस्यु, तस्कर, ढीठ, अशिष्ट, गुंडा प्रकृति के लोगों के शिर पर एक प्रकार का शैतान हर घड़ी चढ़ा रहता है। नशे में मदहोश उन्मत्त की तरह उनकी वाणी, क्रिया एवं चेष्टाएँ होती हैं। कुछ भी आततायीपन वे कर गुजर सकते हैं। तिल को ताड़ समझ सकते हैं, खटका मात्र सुनकर क्रुद्ध विषधर सर्प की तरह वे किसी पर भी हमला कर सकते हैं। ऐसी पैशाचिक मनोभूमि के लोगों के भीतर श्मशान जैसी प्रतिहिंसा और दर्प की आग जलती हुई प्रत्यक्ष देखी जा सकती है।
मनोविकारों के दुष्परिणाम दीन, हीन, दरिद्र, अभागे, पतित, क्षुद्र, निराश प्रकृति के लोग सदा दुख और पतन की ही बात सोचते हैं, उन्हें दुर्भाग्य का ही रोना रोते और भविष्य के निराशा पूर्ण चित्र बनाते हुए ही देखा जायेगा। इन्हें संयोगवश कुछ सुख साधन मिल भी जाय तो भी उनकी वेषभूषा, मुखाकृति, भावभंगिमा निराश और दीन मनुष्यों जैसी ही मिलेगी। चोर, उठाईगीरे व्यभिचारी लम्पट, प्रकृति के लोग दूसरों के धन पर, रूप यौवन पर ही लार टपकाते रहते हैं। बेईमान, रिश्वतखोर, ठग, धोखेबाज, डाकू प्रकृति के लोग दूसरों के खीसे पर ऐसे ही घात लगाये रहते हैं जैसे बगुला मछली को ताकता रहता है। ऐसे लोगों का मलीन मन भला कहीं चैन पा सकता है? वे अभागे यह नहीं जानते कि मानसिक स्वच्छता की भी कोई स्थिति इस संसार में होती है और उसे प्राप्त करने वाला स्वर्गीय सुख शान्ति का अनुभव कर सकता है।
मनोविकार अगणित प्रकार के हैं और वे सभी अपने-अपने ढंग के रोग हैं। शरीर के रोग को दूसरे भी जान सकते हैं पर मन का रोग भीतर छिपा होने से वह केवल रोगी को ही दीखता है। इतना अन्तर तो अवश्य है बाकी कष्टों में कोई अन्तर नहीं। सच तो यह है कि शरीर के कष्ट से मन का कष्ट अधिक दुखदायी होता है। बुखार में पड़े रोगी को जितनी पीड़ा है, पुत्र शोक से संतप्त व्यक्ति को उससे कहीं अधिक है। सिर दर्द की तुलना में अपमान और असफलता का दुख गहरा है। क्रुद्ध और कामासक्त मनुष्य जितना असंतुलित दीखता है उतना जुकाम खाँसी का मरीज नहीं। लोभी और स्वार्थी जितना पाप प्रवृत्त रहता है उतना भूखा और दरिद्र नहीं। रोगी मनुष्य स्वयं जितना व्यथित रहता है, और दूसरों को जितना दुख देता है उसकी अपेक्षा मनोविकार ग्रस्त का क्षेत्र अधिक विस्तृत है। वह स्वयं भी अधिक दुख पाता है और दूसरे अधिक लोगों को अधिक मात्रा में सताता भी है। इसलिए शारीरिक आरोग्य की जितनी आवश्यकता अनुभव की जाती है, मानसिक आरोग्य पर उससे भी अधिक ध्यान दिया जाना चाहिए।
समाजगत सामूहिक दुष्प्रवृत्तियाँ
समाजगत दोष एक प्रथा और परम्परा का रूप धारण कर लेते हैं, उनका प्रभाव छोटे बालकों के कोमल मन पर संस्कार की तरह जम जाता है और वे उन बुराइयों के ऐसे अभ्यस्त हो जाते हैं कि उन्हें वे हानिकारक तक नहीं दीखतीं, वरन् अभ्यस्त होने के कारण प्रिय भी लगने लगती हैं। ऐसी अनेकों सामाजिक कुरीतियाँ हमारे समाज में फैली हुई हैं जिनके कारण असंख्य जीवन बुरी तरह बर्बाद होते हैं और उन की सड़न की दुर्गन्ध से सारा वातावरण दूषित होता है। हम अपने हिन्दू समाज को ही लें, कितनी ही अमानवीय, अनैतिक, अविवेकपूर्ण परम्परायें हमारे मस्तिष्क पर हावी हो गई है। उन्हें यदि निष्पक्ष विचारक एवं समीक्षक की दृष्टि से देखा जाय तो निस्संदेह उन्हें गर्हित एवं त्याज्य ही स्वीकार किया जायेगा। पर चूँकि वे हमारे अभ्यास में आ गई हैं इसलिए न तो अनुचित लगती हैं और न त्याज्य। प्रिय वस्तु के पक्ष में मस्तिष्क दलीलें भी गढ़ लेता है और बेईमान वकील की तरह अपने झूठे मुवक्किल को जिताने के लिए दलीलों पर दलीलें पेश करता जाता है। इस प्रकार सामाजिक रोगों की जड़ें बहुत गहरी होती हैं, अनेक लोगों के दिमागों में वे फैली होती हैं इसलिए उनका उन्मूलन शारीरिक और मानसिक रोगों से भी अधिक कष्टसाध्य होता है।
व्यक्तिगत रोगों की अपेक्षा हैजा, प्लेग, इन्फ्लुएञ्जा, चेचक आदि संक्रामक रोग अधिक चिन्ताजनक माने जाते हैं—क्योंकि व्यक्तिगत रोगों से केवल रोगी को ही कष्ट होता है पर इन संक्रामक रोगों की छूत एक से दूसरे को लगती है और देखते−देखते बहुत बड़ा जन−समूह उन महामारियों का शिकार हो जाता है। सामाजिक अस्वस्थता की भी ठीक ऐसी ही स्थिति है। महामारियों की तरह उनका क्षेत्र भी व्यापक होता है और दुष्परिणाम भी। इसलिए इस ओर भी हमें पूरी−पूरी सावधानी बरतनी होगी अन्यथा शारीरिक और मानसिक आरोग्य प्राप्त करने के सारे प्रयत्न भी निष्फल चले जाएँगे और सामाजिक बीमारियाँ हमारे जीवन क्षेत्र को कलुषित एवं कुंठित बनाकर हमें गिरी दशा में ही पड़े रहने को विवश करती रहेंगी।
गाढ़ी कमाई की मूर्खतापूर्ण आतिशबाजी
विवाहों में होने वाली धूमधाम पर जितना पैसा हम खर्च करते हैं क्या उसके पीछे कोई औचित्य है? धन की बर्बादी को रोककर क्या वह पैसा वर−वधू के स्वास्थ्य या शिक्षा की उन्नति में नहीं लगाया जा सकता? यह प्रश्न हर समझदार आदमी के लिए विचारणीय है। दो दिन की धूमधाम में समय और शक्ति की इतनी बर्बादी का आखिर कोई प्रयोजन, कोई उद्देश्य कोई लाभ भी तो हो? विवेक कहता है कि यह परले सिरे की मूर्खता है। गरीब लोग इस आतिशबाजी में अपनी हड्डी, पसलियों को बारूद की तरह जला डालते हैं। वे कर्जदार हो जाते हैं, अपनी रोजी−रोटी से हाथ धो बैठते हैं, बाकी के छोटे बच्चों का भविष्य अन्धकारमय बना लेते हैं। घर की पूँजी एकाध शादी में ही बारूद की तरह उड़ जाती है, शेष बच्चे, छोटे बहिन-भाई दरिद्रता के अभिशाप में स्वास्थ्य और शिक्षा से भी वञ्चित हो जाते हैं। दहेज का राक्षस कितनी अबोध कन्याओं के कलेजे चीर−चीर कर खाये जा रहा है इसे हम सब खुली आँखों से देखते हैं। कितनी अधखिली कलियों को विषपान, फाँसी लगाकर तेजाब छिड़ककर, आत्महत्या करनी पड़ती हैं, कितनी ही बूढ़ों का ब्याही जाती हैं, कितनी ही कवारी रहती हैं, कितनी ही बहकाई और पथ भ्रष्ट की जाती हैं। दहेज के बूचड़खाने में कितनी कटी और अधकटी उधेड़ी और बिना उधेड़ी हुई बच्चियों की लाशें टंगी दीखती हैं। जिनकी आँखें हों वे अखबारों में रोज ही छपने वाले ऐसे समाचार पढ़ते रह सकते हैं, जिनके कलेजा हो वे अपने समाज की नृशंसता पर आँसू बहाते हुए सिसक−सिसक कर रो सकते हैं। इतना होने पर भी हम इन बुराइयों को रोक नहीं सकते। क्योंकि उनने एक सामाजिक रोग का रूप धारण कर लिया है। हर समझदार इस बुराई को जानता है और जब अपने ऊपर आ बनती है तब उसे महसूस भी करता है, पर बेचारा करे क्या, सामाजिक रोग तो आखिर सामाजिक रोग ही है, उसने परम्परा का रूप धारण कर लिया है उसे कैसे मिटाया जाय? कैसे हटाया जाय?
मृत्यु−भोज का श्मशान कर
रोते कलपते उन लोगों को मृत्यु भोज की लम्बी−चौड़ी दावत करने को विवश होना पड़ता है, जिनके घर में से कमाने वाले जवान आदमी की लाश उठे दो सप्ताह भी नहीं हुए हैं। एक ओर शोक की पीड़ा, एक ओर कमाऊ व्यक्ति के उठने से आर्थिक अव्यवस्था, और एक ओर समाज का श्मशान कर मृत्युभोज। शैव्या को रोहिताश्व के मरने पर अपनी आधी साड़ी फाड़कर मरघट का कर चुकाना पड़ा था। आज असंख्यों गृहस्थियाँ मृत्युभोज के रूप में अपने रोहिताश्वों के मरने का श्मशान कर चुकाने को विवश हैं। उन्हें मृत्यु भोज खिलाना पड़ेगा। अन्यथा चौधरी और पञ्च बात न कहने देंगे। रोते-कलपते लोगों के दरवाजे पर मृत्यु भोज खाने जा पहुँचने वाले मनुष्यों को विवेक की आँख से देखा जाय तो वे मुर्दे का माँस खाने वाले चील कौओं से दीखते हैं पर इनके विरुद्ध कोई कुछ कहे कैसे? सामाजिक रोग के विरुद्ध कौन आवाज उठाये? कौन उसका प्रतिरोध करके अपने को समाज की नजरों में गिराये? समय आने पर उस मृत्युभोज का विरोध करने वालों को मस्तक झुकाना पड़ता है। सामाजिक बुराइयाँ कोई हँसी खेल थोड़े ही है।
घूँघट और पर्दे की प्रथा ने नारी को पिंजड़े के पक्षी जैसी अपंग स्थिति में पहुँचा दिया है यह किससे छिपा है? बाल विवाह, वृद्ध विवाह, कन्या विक्रय, वर विक्रय जैसी कुरीतियों के अन्तिम परिणाम क्या होते हैं इसे कौन नहीं जानता? पर अभी भी यह कुरीतियाँ जीवित हैं। राजस्थान और मध्य−प्रदेश के देहातों में अभी भी इतनी छोटी आयु के बच्चों के इतनी अधिक संख्या में विवाह होते हैं कि स्तब्ध रह जाना पड़ता है। सुनते हैं कि कोई बाल−विवाह विरोधी कानून भी बना हुआ है पर इन बहुसंख्यक विवाहों को देखते हुए यह विश्वास करना कठिन होता है कि सचमुच ही कोई ऐसा कानून होगा। अल्पायु के बच्चे जब गृहस्थ क्रीड़ा करने लगेंगे तो उसका प्रभाव उन पर तथा उनकी संतान पर कैसा पड़ेगा यह कोई गुप्त रहस्य नहीं है। इसे हर कोई जानता है पर सामाजिक रिवाज तो आखिर रिवाज ही रहेगा। एक की देखा−देखी दूसरों को इसे अपनाना ही पड़ेगा।
अन्ध विश्वास और दुर्व्यसन
अन्धविश्वास मूलक कितने ही विचारों ने लाखों व्यक्तियों के जीवन बर्बाद किये हैं। भूत, पलीत, सयाने, दिवाने किस प्रकार लोगों को दिग्भ्रान्त करते हैं, देवी देवताओं के नाम पर कितने लोग ठगे जाते हैं, संडे, मुसंडे धर्म के नाम पर कितनी विशाल धन राशि को भोली जनता से ऐंठ लेते हैं यह तथ्य किसी से छिपे नहीं हैं। दान−पुण्य और दया-धर्म के नाम पर लाखों ऐसे लोग पलते हैं जिनका स्थान जेलखानों में होना चाहिए था। साठ लाख के करीब मनुष्य रंग−बिरंगे कपड़े पहनकर, चित्र−विचित्र वेश बनाकर दान−दक्षिणा के पैसे से पलते और बदले में आलस, अनीति एवं अकर्मण्यता का वातावरण उत्पन्न करते हैं। इतने मनुष्यों का श्रम और इतना धन यदि उपयोगी कार्यों में लग सका होता तो संसार का कितना हित होता? पर ऐसा हो कैसे सकता है? प्राचीन काल से चली आ रही परिपाटी भी भला कोई तोड़ने की चीज है? उसे तोड़ने का उपक्रम कैसे बन सकता है? सामाजिक बुराई तो अंगद के पैर की तरह जहाँ जम जाती है फिर उखड़ती थोड़े ही है।
माँसाहार, जुआ, ताश, व्यसन, बीड़ी, चाय, नशा, रिश्वतखोरी, मिलावट, कम तोलना, झूठ बोलना, शेखीखोरी आदि अनेकों बुरी आदतें अब सामाजिक प्रथाओं का रूप धारण करती चल रही हैं। फैशन की तरह अनेकों शौक हमारी आदत में सम्मिलित होते चले जा रहे हैं। समय की उपेक्षा, वायदे का पालन न करना, कहकर मुकर जाना उधार को हजम कर लेना जैसी बुराइयाँ अब चतुरता को अंग बनती जा रही हैं। राजनीति में झूठ को एक आवश्यक अंग माना जाने लगा है। इस प्रकार की अनेकों अनैतिकताऐं और बुराइयाँ अब धीरे−धीरे फैशन बनती चली जा रही हैं और हमारा सामाजिक स्वास्थ्य−सामूहिक स्तर बुरी तरह नीचे गिरता चला जा रहा है।
सभ्य समाज ही अभीष्ट है
रोगी शरीर, मलीन मन और असभ्य समाज में रहने वाली आत्मा कैसे अपने लक्ष को प्राप्त कर सकेगा? कैसे आत्म−कल्याण की ओर बढ़ सकेगा? इन बन्धनों में बँधे हुए उसके पैर प्रगति के पथ पर यदि चलें भी तो उनकी गति बहुत धीमी होगी। घोड़े को नाचने की कला सिखाई जाय तो इसके साथ−साथ यह भी आवश्यक है कि उसे अपनी कला दिखाने का क्षेत्र भी मिले। आत्मा समुन्नत हो इसके लिए उपासना आवश्यक है, अनिवार्य है। पर साथ ही जिस शरीर के द्वारा जिस मन के आधार पर जिस समाज में रहकर आत्मिक प्रगति की जाती है, उनका उचित स्थिति में होना भी जरूरी है। यदि इस ओर ध्यान न दिया गया तो उपासनात्मक साधना एकाँगी रहेगी, अपूर्ण मानी जायगी और सफलता संदिग्ध ही बनी रहेगी।
इस दृष्टि में “अखण्ड ज्योति” के आध्यात्मिक मिशन में, आत्म कल्याण और युग निर्माण के उभय-पक्षीय कार्यक्रम सन्निहित हैं। गायत्री उपासना के माध्यम से हमारी आत्म−कल्याण प्रक्रिया निष्ठा और श्रद्धा के वातावरण में चल रही है। युग निर्माण के दूसरे कार्यक्रम पर भी अब हमें आवश्यक ध्यान देना है। स्वस्थ शरीर, स्वच्छ मन और सभ्य समाज का निर्माण ही युग निर्माण का आधार हो सकता है। इसके लिए हमें उसी उत्साह से अग्रसर होना है जिस उत्साह से कि आत्म−कल्याण की साधना में संलग्न रह रहे हैं। पक्षी दो पंखों से उड़ता है, हमारी आन्तरिक और बाह्य प्रगति मिलकर ही एक उभय-पक्षीय सर्वांगपूर्ण प्रगति सिद्ध हो सकेगी।

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