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मन की स्वच्छता आवश्यक है।

मनुष्य के अस्तित्व पर गम्भीरतापूर्वक विचार किया जाय तो उसकी एकमात्र विशेषता उसका मनोबल ही दृष्टिगोचर होती है। शरीर की दृष्टि से वह अन्य प्राणियों की तुलना में बहुत गया बीता है। मनोबल की विशेषता के कारण ही वह सृष्टि का मुकुटमणि प्राणी बना हुआ है। मन वस्तुतः एक बहुत बड़ी शक्ति है। अनन्त चेतना के केन्द्र परमात्मा का प्रकाश इस जड़ प्रकृति में जो पड़ता है तो उसका प्रतिबिम्ब मन के रूप में ही सामने आता है। जड़ पदार्थ कितने ही उत्कृष्ट क्यों न हों चेतना के बिना वे निरर्थक हैं। इस पृथ्वी के गर्भ में रत्नों की खानें, स्वर्ण भंडार और न जाने क्या−क्या बहुमूल्य संपदाएँ भरी पड़ी हैं पर वे तब तक प्रकाश में नहीं आती जब तक कोई चेतना सम्पन्न मनुष्य उनसे सम्पर्क स्थापित नहीं करता है। स्वर्ण और रत्न का मूल्य चेतन प्राणी की चेतना के कारण ही है अन्यथा वे मिट्टी कंकड़ के समान ही पड़े रहते हैं। इस देह को ही लीजिए। कितनी बहुमूल्य प्रिय एवं उपयोगी लगती है पर यदि चेतना नष्ट हो जाय—मूर्छा, उन्माद या मृत्यु की स्थिति आ जाय तो यह देह किसी काम की नहीं रह जाती। मानव−जीवन में जो कुछ श्रेष्ठता, एवं महत्ता है वह केवल उसकी मानसिक स्थिति−मनोभूमि के कारण ही है।
मनुष्य−मनुष्य के बीच का अन्तर
आलसी और उत्साही, कायर और वीर, दीन और समृद्ध, दुर्गुणी और सद्गुणी, पापी और पुण्यात्मा, अशिक्षित और विद्वान, तुच्छ और महान, तिरस्कृत और प्रतिष्ठित का जो आकाश−पाताल जैसा अन्तर मनुष्यों के बीच में दीख पड़ता है उसका प्रधान कारण उस व्यक्ति की मानसिक स्थिति ही है। परिस्थितियाँ भी एक सीमा तक इन भिन्नताओं में सहायक होती हैं पर उनका प्रभाव पाँच प्रतिशत ही होता है। पंचानवे प्रतिशत कारण मानसिक स्थिति ही है। बुरी−से−बुरी परिस्थितियों में पड़ा हुआ मनुष्य भी अपनी कुशलता और मानसिक विशेषताओं के द्वारा उन बाधाओं को पार करता हुआ, देर−सवेर में अच्छी स्थिति प्राप्त कर लेगा। अपने सद्गुणों, सद्विचारों एवं सत्प्रयत्नों द्वारा कोई भी मनुष्य बुरी−से−बुरी परिस्थिति को पार करके ऊँचा उठ सकता है, मानवोचित सम्मान और सुविधायें प्राप्त कर सकता है। पर जिसकी मनोभूमि निम्न श्रेणी की है जो दुर्बुद्धि से, दुर्गुणों से, दुष्प्रवृत्तियों से ग्रसित है उसके पास यदि कुबेर जैसी सम्पदा और इन्द्र जैसी सुविधा हो तो भी वह अधिक दिन ठहर न सकेगी, कुछ ही दिन में नष्ट हो जायगी।
परमात्मा ने मनुष्य और मनुष्य के बीच में बहुत थोड़ा अन्तर रखा है। सभी के शरीर लगभग एक से हैं। आवश्यकतायें, विशेषताएँ, परिस्थितियाँ भी सभी की लगभग एक−सी हैं। शरीर और मस्तिष्क की बनावट और कार्य प्रणाली में भी कोई बहुत अन्तर नहीं है। यों थोड़ा बहुत अन्तर रहता है, वह इतना ही है जितना एक पेड़ के पत्तों में, या एक जाति के पक्षियों में रहता है। यह इतना अधिक नहीं है कि उसके कारण किसी को विवशता अनुभव करनी पड़े। कुछ थोड़े से रुग्ण अपंग या ऐसे ही असमर्थों को छोड़कर साधारणतया सभी को परमात्मा ने लगभग एक−सा शरीर और मन दिया हुआ होता है और यदि मनुष्य उनका सदुपयोग करे तो ऊँची से ऊँची स्थिति प्राप्त कर सकता है और यदि दुरुपयोग करने पर उतर आवे तो पतन, अन्धकार एवं नरक जैसी, अज्ञान दारिद्र एवं असमर्थता जैसी—बुरी परिस्थिति में ग्रसित हो सकता है।
सच्ची सम्पदा एवं विभूतियाँ
धन, यश, स्वास्थ्य, विद्या, सहयोग आदि विभूतियों के आधार पर इस संसार में नाना प्रकार की सम्पदायें और सुविधायें प्राप्त की जाती हैं। और यह विभूतियाँ मनुष्य की मानसिक स्थिति के अनुरूप आती या चली जाती हैं। भाग्य, देवता, ईश्वर, परिस्थिति आदि को भी दुख−सुख का कारण माना जाता है, पर थोड़ी और गहराई तक जाने पर यह बात भी स्पष्ट हो जाती है कि भाग्य एवं ईश्वर का वरदान एवं अभिशाप भी मनुष्य के अपने विचारों एवं कार्यों के आधार पर ही प्राप्त होता है। न तो ईश्वर अन्यायी है और न भाग्य लिखने वाला विधाता बावला है जो जिसका प्रारब्ध बिना विचारे चाहे जैसा लिख डाला करे। इस बाह्य जगत में अव्यवस्था चल भी सकती है, यहाँ रिश्वत, पक्षपात या भूल−चूक की गुँजाइश रहती है, पर सूक्ष्म जगत में ईश्वरीय विधान एवं कार्यफल के क्षेत्र में किसी प्रकार की गड़बड़ी संभव नहीं। वहाँ मनुष्य का कर्तृत्व ही परखा जाता है और उसी आधार पर प्रारब्ध का निर्माण किया जाता है। वस्तुतः पुरुषार्थ ही प्रारब्ध बनकर सामने आया हुआ है। आज का पुरुषार्थ अगले कल प्रारब्ध बनने वाला है। कर्म और उसका फल मिलने में देर−सवेर का जो अंतर रह जाता है वही भाग्य और ईश्वर को हमारे कर्म से बाहर की कोई स्वतन्त्र वस्तु मानने का भ्रम पैदा करता है। वस्तुतः कर्म ही प्रधान है। उसी का नाम आगे−पीछे भाग्य बन जाता है। मीठे दूध का नाम गुण और रूप भी तो समयानुसार बदलकर खट्टे गाढ़े दही के रूप में हो जाता है। प्रारब्ध और पुरुषार्थ का अन्तर भी दूध और दही जैसा ही नाममात्र का है।
विचारों का प्रतिफल कर्म
कर्म जो आँखों से दिखाई देता है वह अदृश्य−विचारों का ही दृश्य रूप है। मनुष्य जैसा सोचता है वैसा करता है। चोरी, बेईमानी, दगाबाजी, शैतानी, बदमाशी कोई आदमी यकायक कभी नहीं कर सकता, उसके मन में उस प्रकार के विचार बहुत दिनों से घूमते रहते हैं। अवसर न मिलने से वे दबे हुए थे, समय पाते ही वे कार्य रूप में परिणत हो गये। बाहर के लोगों को किसी के द्वारा यकायक कोई दुष्कर्म होने की बात सुनकर इसलिए आश्चर्य होता है कि वे उसकी भीतरी स्थिति को नहीं जानते थे। इसी प्रकार कोई अधिक उच्चकोटि का सत्कर्म करने का भी आकस्मिक समाचार भले ही सुनने को मिले पर वस्तुतः उसकी तैयारी वह मनुष्य भीतर ही भीतर बहुत दिनों से कर रहा होता है। इसी प्रकार जो व्यक्ति आज उन्नतिशील एवं सफलता सम्पन्न दिखाई पड़ते हैं वे अचानक ही वैसे नहीं बन गये होते वरन् चिरकाल से उनका प्रयत्न उसके लिए चल रहा होता है। भीतरी पुरुषार्थ को उनने बहुत पहले जगा लिया होता है। उनने अपने मनःक्षेत्र में भीतर ही भीतर वह अच्छाइयाँ जमा कर ली होती हैं जिनके द्वारा बाह्य जगत में दूसरों का सहयोग एवं उन्नति का आधार निर्भर रहता है। बाह्य−जीवन हमारे भीतरी जीवन का प्रतिबिम्ब मात्र है। पर्दे के पीछे दीपक जल रहा है तो उसका कुछ प्रकाश बाहर भी परिलक्षित होता है। इसी प्रकार भीतरी पर्दे में जिनमें कुछ अच्छाइयाँ हैं वे ही उनकी कीमत पर बाह्य−जगत में सुख साधनों को खरीद लेते हैं।
अनैतिक प्रकृति के लोग बहुधा अपनी चालाकी से धन कमा लेते या कोई उन्नति कर लेते देखे जाते हैं। इससे उस कमाई का सारा श्रेय अनैतिकता को नहीं दिया जा सकता। माना कि लोगों की कमजोरी और भोलेपन का लाभ कई शैतान उठा लेते हैं पर इस शैतानी के पीछे भी उनकी चतुरता, तीव्र−बुद्धि, तत्परता, सावधानी, लगन, हिम्मत, कष्ट सहिष्णुता आदि अनेक गुण छिपे रहते हैं। डाकुओं में भी पुरुषार्थ, हिम्मत, बहादुरी, कष्ट−सहिष्णुता, चतुरता, सावधानी अपने साथियों के प्रति वफादारी आदि अनेक मानसिक गुण भी होते हैं। यदि यह गुण किसी में न हों और वह केवल बेईमानी से ही कुछ लाभ उठाना चाहे तो उसका प्रयास एक कदम भी सफल नहीं हो सकता। अनैतिक लोगों की सफलता से चकित होकर कई लोग अनैतिकता को लाभ और सफलता का हेतु मानने लगते हैं यह भूल है। अनैतिकता के फलस्वरूप तो उन्हें सर्वत्र अविश्वास, घृणा, तिरस्कार, असहयोग एवं यथा अवसर राजकीय एवं ईश्वरीय दंड ही मिलता है। लाभ का श्रेय तो उस मनोभूमि को है जो प्रयत्नपूर्वक इतनी जल्दी बनाई गई कि अनैतिकता के दंड एवं लोगों की पकड़ से बचते हुए एक प्रकार की सफलता प्राप्त कर ली गई। बेवकूफ एवं आलसी, लापरवाह एवं अड़ियल प्रकृति के लोग अनैतिकता को अपनाकर भी सफलता प्राप्त नहीं कर सकते। यदि पाप से ही कमाई होती हुई होती तो हर दुरात्मा को सफलता मिली होती। फिर जो लाखों अनैतिक मनोभूमि वाले भीख−टूक पर गुजारा करते दिखाई देते हैं वे सब के सब मालदार ही हो गये होते।
लौकिक सफलताओं का आधार
तात्पर्य केवल इतना है कि नीति और अनीति के आधार पर प्रतिष्ठा−अप्रतिष्ठा, प्रेम, द्वेष, शान्ति−अशान्ति, दंड पुरस्कार, स्वर्ग−नरक मिलते हैं, पर लौकिक सफलताओं का आधार जागरुकता, पुरुषार्थ, लगन, साहस आदि गुण ही हैं। यह सभी गुण शरीर के नहीं, मन के हैं। मन को उपयोगी, अनुकूल, उचित आदतों का, विचार पद्धति का अभ्यस्त बना लेने से ही नाना प्रकार के उन गुणों का आविर्भाव होता है जो लौकिक एवं पारलौकिक सफलताओं के मूल आधार हैं।
शरीर को आलस, असंयम, उपेक्षा एवं दुर्व्यसनों में पड़ा रहने दिया जाय तो उसकी सारी विशेषताएँ नष्ट हो जायेंगी। इसी प्रकार मन को अव्यवस्थित पड़ा रहने दिया जाय, उसे कुसंस्कार−ग्रस्त होने से संभाला न जाय तो निश्चय ही वह हीन स्थिति को पकड़ लेगा। पानी का स्वभाव नीचे की तरफ बहना है, ऊपर उठाने के लिए बहुत प्रयत्न करते हैं तब सफलता मिलती है। मन का भी यही हाल है यदि उसे रोका, संभाला, समझाया, बाँधा और उठाया न जाय तो उसका कुसंस्कारी दुर्गुणी, पतनोन्मुखी, आलसी एवं दीन−दरिद्र प्रकृति का बन जाना ही निश्चित है। आज इसी प्रकार का मानसिक अवसाद चारों ओर फैल रहा है। शरीर की दुर्बलता और बीमारी जिस प्रकार व्यापक रूप से फैली दिखाई देती है वैसी ही हमारी मानसिक दुर्बलता एवं रुग्णता भी कम शोचनीय नहीं है। कलह प्रिय, क्रोधी, तुनक-मिज़ाज, असहिष्णु, ईर्ष्यालु, छिद्रान्वेषी, अहंकारी, उद्दण्ड, प्रकृति के लोगों से हमारा समाज भरा पड़ा है। इन दुर्गुणों के कारण पारस्परिक प्रेम−भावना, आत्मीयता एवं घनिष्ठता दिन−दिन नष्ट होती जाती है और एक आदमी दूसरे से दिन−दिन दूर पड़ता जाता है। प्रेम, सहयोग, प्रसन्नता, मुस्कान, नम्रता, उदारता, सहिष्णुता, शिष्टता, कृतज्ञता के गुणों से यदि मनोभूमि परिष्कृत हो तो परस्पर का प्रेम−भाव कितना बढ़े, कितना सुदृढ़ रहे और फलस्वरूप कितनी प्रगति एवं प्रसन्नता का वातावरण बन जाय?
बर्बादी की दुष्प्रवृत्ति
समय की बर्बादी को यदि लोग धन की हानि से बढ़कर मानने लगें, तो क्या हमारा जो बहुमूल्य समय यों ही आलस में बीतता रहता है क्या कुछ उत्पादन करने या सीखने में न लगे? विदेशों में आजीविका कमाने के बाद बचे हुए समय में से कुछ घंटे हर कोई व्यक्ति अध्ययन के लिए लगाता है और इसी क्रम के आधार पर जीवन के अन्त तक वह साधारण नागरिक भी उतना ज्ञान संचय कर लेता है जितना कि हम में से उद्भट विद्वान समझे जाने वाले लोगों को भी नहीं होता। जापान में बचे हुए समय को लोग गृह−उद्योगों में लगाते हैं और फालतू समय में अपनी कमाई बढ़ाने के अतिरिक्त विदेशों में भेजने के लिए बहुत सस्ता माल तैयार कर देते हैं जिससे उनकी राष्ट्रीय भी बढ़ती है। एक ओर हम हैं जो स्कूल छोड़ने के बाद अध्ययन को तिलाञ्जलि ही दे देते हैं और नियत व्यवसाय के अतिरिक्त कोई दूसरी सहायक आजीविका की बात भी नहीं सोचते। क्या स्त्री क्या पुरुष सभी इस बात में अपना गौरव समझते हैं कि उन्हें शारीरिक श्रम न करना पड़े। समय की बर्बादी शारीरिक नहीं मानसिक दुर्गुण है। मन में जब तक इसके लिए रुचि, आकाँक्षा एवं उत्साह पैदा न होगा, जब तक इस हानि को मन हानि ही नहीं मानेगा तब तक सुधार का प्रश्न ही कहाँ पैदा होगा? टाइम टेबल बनाकर—कार्यक्रम निर्धारित कर, कितने लोग अपनी दिनचर्या चलाते हैं? फुरसत न मिलने की बहानेबाजी हर कोई करता है पर ध्यानपूर्वक देखा जाय तो उसका बहुत सा समय, आलस, प्रमाद, लापरवाही और मंदगति से काम करने में नष्ट होता है। समय के अपव्यय को रोककर और उसे नियमित दिनचर्या की सुदृढ़ श्रृंखला में आबद्ध कर हम अपने आज के सामान्य जीवन को असामान्य जीवन में बदल सकते हैं। पर यह होगा तभी न जब मन का अवसाद टूटे? जब लक्षहीनता, अनुत्साह एवं अव्यवस्था से पीछा छूटे?
अन्तर्दोषों का प्रतिफल
नैतिक आदर्शों का पालन शरीर के प्रतिबंधों पर नहीं मन की उच्चस्थिति पर निर्भर है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर के षडरिपु जो मन में छिपे बैठे रहते हैं समय−समय पर हिंसा, झूठ, पाखंड, स्वार्थ, बेईमानी, रिश्वतखोरी, दहेज,कन्या विक्रय, वर विक्रय, माँसाहार जुआ, चोरी आदि सामाजिक बुराइयों के रूप में फूट पड़ते हैं। नाना प्रकार के दुष्कर्म यद्यपि अलग−अलग प्रकार के दीख पड़ते हैं पर उनका मूल एक ही है ‘मन की मलीनता’। जिस प्रकार पेट खराब होने से नाना प्रकार के शारीरिक रोग उत्पन्न होते हैं उसी प्रकार मन मलीन होने पर हमारे वैयक्तिक और आन्तरिक जीवन में नाना प्रकार के कुकर्म बन पड़ते हैं। जिस प्रकार रोगों के कारण शरीर की पीड़ा उठानी पड़ती है उसी प्रकार मन की मलीनता से हमारा सारा बौद्धिक संस्थान—विचार क्षेत्र औंधा हो जाता है और कार्यशैली ऐसी ओछी बन पड़ती है कि पग−पग पर असफलता, चिन्ता, त्रास, शोक, विक्षोभ के अवसर उपस्थित होने लगते हैं। अव्यवस्थित मनोभूमि को लेकर इस संसार में न तो कोई महान बना है और न किसी ने अपने जीवन को सफल बनाया है। उसके लिए क्लेश और कलह, शोक और संताप दैन्य और दारिद्र ही सुनिश्चित हैं, न्यूनाधिक मात्रा में वे ही उसे मिलने हैं, वे ही मिलते भी रहते हैं।
एक स्मरणीय तथ्य
यह स्मरण रखने योग्य बात है, यह गाँठ बाँध लेने योग्य तथ्य है कि मनुष्य के जीवन में एकमात्र विभूति उसका मन है। इस मन को यदि संभाला और साधा न जाएगा, सुधारा और सुसंस्कृत न किया जाएगा तो वह नीचे बहने वाले जल की तरह स्वभावतः पतनोन्मुख होगा। मन को स्वच्छ बनाना—हमारे चेतन जगत का सबसे बड़ा पुरुषार्थ की ओर जिनके कदम बढ़े हैं उनके लिए लौकिक सफलताओं और समृद्धियों का द्वार प्रशस्त होता है और उन्हीं ने आत्मिक लक्ष प्राप्त किया है। मन पर चढ़े हुए मल आवरण जब हट जाते हैं तो अपनी आत्मा में ही परमात्मा के प्रत्यक्ष दर्शन होने लगते हैं। मन की मलीनता के रहते प्रत्येक दुख और अशुभ मनुष्य के आगे−पीछे ही घूमता रहेगा। देवत्व तो मानसिक स्वस्थता का ही दूसरा नाम है। जिसने अपना अन्तःकरण स्वच्छ कर लिया उसने इसी देह में देवत्व का लाभ उठाया है और इसी धरती पर स्वर्ग का आनन्द लिया है। ‘स्वच्छ मन’ जीवन की एक महत्वपूर्ण आवश्यकता है। युग−निर्माण के लिए हमें इस पर पूरी सावधानी से ध्यान देना होगा।

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