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अहिंसा

अहिंसा


महात्मा गांधी
अब हम अस्तेय व्रत का विचार करेंगे। यदि गम्भीर विचार करके देखें तो मालूम होगा कि सब व्रत सत्य और अहिंसा के अथवा सत्य के गर्भ में रहते हैं और वे इस तरह बताये जा सकते हैं-
या तो सत्य में से अहिंसा को स्थापित करें या सत्य अहिंसा की जोड़ी मानें। दोनों एक ही वस्तु हैं। तो भी मेरा मन पहले की ओर ही झुकता है। और अन्तिम स्थिति भी जोड़ी से, द्वन्द्व से अतीत है। परम सत्य अकेला खड़ा रहता है। सत्य साध्य है, अहिंसा एक साधन ।। अहिंसा क्या है, जानते हैं, पालन कठिन है। सत्य को तो अंशतः ही जानते हैं। सम्पूर्णतया जानना देही के लिये कठिन है। वैसे ही जैसे अहिंसा का सम्पूर्ण पालन देही के लिये कठिन है।
अस्तेय अर्थात चोरी न करना। कोई यह न मानेगा कि चोरी करने वाला सत्य को जानता और प्रेम धर्म का पालन करता है, तो भी चोरी का अपराध तो इस सब, कम या ज्यादा मात्रा में, जान में या अजान में करते ही हैं। दूसरे की वस्तु को उसकी अनुमति के बिना लेना तो चोरी है ही, परन्तु मनुष्य अपनी कही जाने वाली चीज भी चुराता है। उदाहरणार्थ किसी पिता का अपने बालकों के जाने बिना, उन्हें मालूम न होने देने की इच्छा से, चुपचाप किसी चीज का खाना। यह कहा जा सकता है कि आश्रम की वस्तु, भण्डार हम सब का है, परन्तु उसमें से जो चुपचाप गुड़ की डली भी लेता है, वह चोर है। एक बालक दूसरे बालक की कलम लेकर मेरी कहता है। किसी के जानते हुए भी उसकी चीज को उसकी आज्ञा के बिना लेना चोरी है। यह समझ कर कि किसी की भी नहीं है, किसी चीज को अपने पास रख लेने में भी चोरी है। अर्थात राम में मिली हुई चीज के मालिक हम नहीं, बल्कि उस प्रदेश का राजा या व्यवस्थापक है। आश्रम के नजदीक मिली हुई कोई भी चीज आश्रम के मन्त्री को सौंपी जानी चाहिये और यदि वह आश्रम की न हो तो मन्त्री उसे सिपाही को सौंप दे। इतने तक तो समझना साधारणतः सहज ही है। परन्तु अस्तेय इससे बहुत आगे जाता है। जिस चीज की लेने की हमें आवश्यकता न हो, उसे जिसके पास वह है, उसकी आज्ञा लेकर भी लेना चोरी है। ऐसी एक भी चीज न लेनी चाहिये, जिसकी जरूरत न हो। संसार में इस तरह की अधिक से अधिक चोरी खाद्य पदार्थों की होती है। मुझे अमुक फल की हाजत आवश्यकता नहीं है, तो भी यदि मैं उसे लेता हूँ तो वह चोरी है। मनुष्य हमेशा इस बात को नहीं जानता कि उसकी आवश्यकता कितनी है, और प्रायः हममें से सब अपनी आवश्यकताओं को जितनी होनी चाहिये, उससे अधिक बढ़ा लेते हैं। विचार करने से हमें मालूम होगा के हम अपनी बहुतेरी आवश्यकताओं को कम कर सकते हैं। अस्तेय व्रत का पालन करने वाला उत्तरोत्तर अपनी आवश्यकताओं को कम करेगा। इस दुनियाँ की अधिकांश कंगालियत अस्तेय के भंग के कारण पैदा हुई है।
उक्त समस्त चोरियों को बाह्य या शारीरिक चोरी कह सकते है। इससे सूक्ष्म और आत्मा को नीचे गिराने वाली या पतित बनाये रखने वाली चोरी, मानसिक है। मन से किसी की चीज को पाने की इच्छा करना या उस पर जूठी नजर डालना चोरी है। बड़े बूढ़े या बालक का किसी उम्दा चीज को देखकर ललचा जाता मानसिक चोरी है। उपवास करने वाला शरीर से नहीं खाता, परन्तु दूसरे को खाते देख यदि वह मन ही मन स्वाद करने लगता है, तो चोरी करता है और उपवास को तोड़ता है। यदि उपवासी उपवास छोड़ते समय खाने का ही विचार करता है, कह सकते हैं कि वह अस्तेय और उपवास दोनों भंग करता है। अस्तेय व्रत का पालक भविष्य में प्राप्त होने वाली चीजों के लिये हवाई किले नहीं बांधा करता। बहुतेरी चोरियों का मूल कारण आपकी यह जूठी इच्छा ही मालूम होगी। आज जो केवल विचार ही में है, कल उसे पाने के लिये हम भले बुरे उपाय सोचने लग जायेंगे और जैसे चीज की वैसे ही विचार की भी चोरी होती है। अमुक उत्तम विचार अपने मन में उत्पन्न न होने पर भी जो अहंकार वश उसे अपना बताता है वह विचार की चोरी करता है। दुनियाँ के इतिहास में बहुतेरे विद्वानों ने भी ऐसी चोरी की है और आज भी होती रहती है। मान लीजिये कि मैं आन्ध्र देश में एक नई किस्म का चर्खा देख आया, वैसा चर्खा मैंने आश्रम में बनवाया और उसे अपना आविष्कार कहना शुरु किया तो स्पष्ट है कि मैंने इस तरह दूसरे के आविष्कार की चोरी की है। असत्याचरण तो किया ही है।
अतएव अस्तेय व्रत का पालन करने वाले को बहुत नम्र, बहुत विचारशील, बहुत सावधान और बहुत सादगी से रहना पड़ता है।
- सप्त महाव्रत

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