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सज्जनों से ही मित्रता करें।

सज्जनों से ही मित्रता करें।




मनुष्य सामाजिक प्राणी है। उसका समाज जितना ही घनिष्ठ एवं विस्तृत हो उतना ही वह सुखी रह सकेगा। मछली जल में रहती है, यह जल जितना अधिक एवं जितना स्वच्छ होगा उतना ही उसे सुख मिलेगा। थोड़े जल में मछली का आनन्द सीमित हो जाता है और यदि वह जल मैला-कुचैला, गन्दा, दूषित हो तो उस बेचारी को साँस लेने एवं जीवित रहने में कठिनाई पड़ेगी। यही बात मनुष्य के बारे में भी है। उसके जितने घनिष्ठ सच्चे, सुयोग्य मित्र जितनी अधिक संख्या में होंगे वह उतना ही सुखी-सन्तुष्ट एवं समुन्नत हो सकेगा। इसके विपरीत यदि मित्र कम होंगे, जो होंगे वे भी झूठे विश्वासघाती, कुसंस्कारी एवं निकृष्ट स्तर के होंगे तो उनके द्वारा सदा त्रास, असंतोष, क्षोभ, हानि एवं पतन की ही सम्भावना रहेगी।
मित्रता व्यक्ति एवं समाज की व्यवस्था एवं प्रगति के लिए एक आवश्यक तत्व है। इसलिए हर व्यक्ति के लिए यह आवश्यक है कि वह उसे सम्पादित करने के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहे। मित्रों से भरी-पूरी जिन्दगी सरल, सफल और सुखद होती देखी गई है। उसमें रस भी रहता है और उल्लास भी। अतएव आमतौर से सभी उसके लिए लालायित रहते हैं और यथासम्भव ऐसे प्रयत्न भी करते हैं जिससे मित्र-मण्डल की अभिवृद्धि होती है, यह उचित भी है और आवश्यक भी।
किन्तु इस युग में जिस प्रकार औचित्य का प्रत्येक मार्ग कंटकाकीर्ण हो गया है उसी प्रकार मित्रता की मंजिल भी बड़ी जटिल हो गई है। आम तौर पर नकली, झूँठी, निकम्मी और पतनोन्मुख मित्रता का ही बोलबाला रहता है और उस जंजाल में फंस कर अनेक व्यक्ति भारी जोखिम उठाते और पछताते देखे गये हैं। जब व्यक्तियों में से श्रेष्ठता का तत्व ही घटता चला जा रहा है तो उनसे सच्ची और अच्छी मित्रता की भी आशा क्यों की जाय? मतलब के लिए गधे को बाप बनाने की कला में प्रवीण व्यक्ति एक नाटक की तरह मित्रता का स्वाँग खड़ा कर देते हैं। आँधी तूफान की तरह उसे बढ़ाते हैं और किसी भोले आदमी को उसकी उसी पकड़ में जकड़ कर ऐसी पटक लगाते हैं कि बेचारा चारों खाने चित्त हो जाता है। मित्रता का यही स्वरूप आज आम तौर से देखा जाता है, इसलिए इस दिशा में पूरी तरह सतर्क रहने की आवश्यकता है। ऐसा न हो कि चले थे मित्रता का आनन्द लेने मिले उलटा छल और कपट, शोक एवं संताप।
मित्र की तलाश के लिए कदम बढ़ाने से पूर्व यह भली प्रकार समझ लेना चाहिए कि केवल नैतिक आस्था वाले, उत्कृष्ट व्यक्तित्व के व्यक्ति ही सच्ची मित्रता कर सकने और निबाहने योग्य होते हैं। जिन व्यक्तियों का निजी जीवन घृणित एवं पतनोन्मुख रहा है वे कदाचित ही किसी के सच्चे मित्र होते हैं, जब समय आता है अपने असली रूप में प्रकट होते हैं और मित्र की ही चोटी साफ कर देते हैं। जिसके पास न उत्कृष्टता है न आदर्शवादिता वह मित्रों को कुछ नहीं दे सकता। उसके पल्ले आजीवन जो घृणित निकृष्टता बंधी रही है वह उसे ही तो अपने मित्र को दे सकता है। झूठे, चोर, गंवार, जुआरी, बेईमान, गुण्डे, बदमाश प्रकृति के मनुष्य न तो किसी के मित्र हो सकते हैं और न होंगे। उनकी जहाँ भी घनिष्ठता बढ़ेगी वे वहीं सर्वनाश प्रस्तुत करेंगे। इसलिए मैत्री के इच्छुक हर भावनाशील व्यक्ति को आरम्भ से ही यह ध्यान रखना होगा कि वह किसी दुष्ट, दुराचारी से घनिष्ठता बढ़ाने की जोखिम न उठायें। आरम्भ में ऐसे लोगों के माध्यम से कोई प्रयोजन सिद्ध होता, लाभ मिलता दिखाई पड़े तो भी उसे छोड़ देना चाहिए, क्योंकि वह आरम्भिक तनिक-सा लाभ अन्ततः बहुत बड़े घाटे की परिस्थिति उत्पन्न करता है।
मित्रता के लिए वे ही व्यक्ति उपयुक्त हो सकते हैं जो प्रकृतितः सज्जन हैं। जिनके गुण, कर्म, स्वभाव में शालीनता एवं उत्कृष्टता का समुचित समावेश है, ऐसे लोग ही किसी को कुछ प्रकाश एवं आनन्द प्रदान कर सकते हैं। ओछे व्यक्ति अपनी कालौंछ से अच्छे को भी कलंकित कर देते हैं। अतएव मित्रता बढ़ाने से पूर्व हजार आँखों से देखना और हजार हाथों से टटोलना चाहिए कि वह घृणित स्तर का तो नहीं, उसका पिछला चरित्र स्वार्थपूर्ण तो नहीं रहा है। अपनी धर्मपत्नी से विश्वासघात करने वाले व्यभिचारी जिससे भी प्रेम का नाटक रचते हैं उस बेचारी को गर्त में डुबाने के अतिरिक्त और कुछ प्रयोजन सिद्ध नहीं कर सकते। ऐसे वासनात्मक प्रेम-जंजाल में फंस कर अनेक नर-नारी अपने भविष्य को अन्धकारमय बनाते और सिर धुन-धुन कर पछताते देखे गये हैं। इसी प्रकार आर्थिक अथवा बल प्रयोग के लाभ का लोभ देकर जो दुष्ट दुराचारी किसी को अपने मित्रता पाश में बाँध लेते हैं अन्ततः उसकी दुर्गति कर के ही छोड़ते हैं।
वर्तमान युग की इस कटु सचाई को ध्यान में रखते हुए मित्रता बढ़ानी चाहिए। मित्रता, आवश्यक, उचित और लाभदायक भी है पर यह उद्देश्य पूरा तभी हो सकता है जब सज्जनों के साथ वैसा सुयोग बनता हो। अपने आस-पास जो सज्जन, सद्भावी चरित्रवान एवं सुयोग्य व्यक्ति हों, उनकी जानकारी प्राप्त करनी चाहिये और क्रमशः उनके साथ मित्रता बढ़ानी चाहिए। जब तक ऐसे लोग न मिलें, अपने परिवार के लोगों को ही अपना सच्चा मित्र बनाए रखने तक सीमित रखना चाहिये। अपने सद्गुणों के आधार पर सज्जनतापूर्ण व्यवहार करते रहने से, उनके गुण, कर्म, स्वभाव में शालीनता एवं विचारों में उत्कृष्टता बढ़ाते चलने से अपने घर के लोग भी श्रेष्ठ मित्रों की आवश्यकता पूरी कर सकते हैं। पति-पत्नी, भाई-भाई, पिता-पुत्र आदि सम्बन्धी आपस में सच्चे मित्र हो सकते हैं। घर से बाहर केवल सज्जन प्रकृति के लोगों से ही मित्रता बढ़ानी चाहिये। दीन-दुःखियों की सहायता-दुरात्माओं की उपेक्षा, प्रगतिशील लोगों की प्रशंसा कर के काम चलाया जा सकता है, पर मित्रता बढ़ाने के लिए पूरी तरह यह ध्यान रखना चाहिये कि निठल्ले, निकम्मे, दुष्ट, दुराचारी और दुर्मुखी लोगों को किसी भय या प्रलोभन के वशीभूत होकर भी मित्र नहीं बनाना चाहिए। थोड़ी घनिष्ठता हो भी जाय तो ऐसे लोगों को अपनी दुर्बलताओं का रहस्य तो कदापि नहीं बताना चाहिए अन्यथा वे उसी कमजोरी का अनुचित लाभ उठाते रहेंगे और अवसर आने पर उसे प्रकट कर के अपने लिये विपत्ति खड़ी कर देंगे।
मित्रता के मार्ग की इन विभीषिकाओं को ध्यान में रखने के उपरान्त धैर्यपूर्वक उसके समीपवर्ती क्षेत्र में सज्जनों की खोज करनी चाहिये और उनसे मैत्री बढ़ानी चाहिये। ऐसे लोगों से भले ही बहुत गहरी घनिष्ठता न हो जावे उनका थोड़ा परिचय और संपर्क भी बड़े काम का सिद्ध हो सकता है। ऊँचे स्तर के सुयोग्य व्यक्ति न मिलें तो भी उतना तो करना ही चाहिये कि मित्र-मण्डली में जो हों वे सामान्य स्तर के भले और भोले व्यक्ति हों। कोई उनकी विशेषता भले ही न हो पर दुष्टता से तो बचे हों। दुष्ट लोगों में चतुरताजन्य आकर्षण होता है, उस आकर्षण से वे मित्रों को फंसाते-पछाड़ते रहते हैं। प्रयत्न यह होना चाहिये कि ऐसे लोगों से बच कर अपनी घनिष्ठता उनके साथ बढ़ाई जाय, जिनसे लाभ भले ही न हो पर खतरे की आशंका तो न करनी पड़े।
सच्चे और अच्छे मित्र भले ही थोड़ी संख्या में हों, भले ही वे व्यक्ति घनिष्ठ न होकर सामान्य सद्भाव संपर्क के ही हों, वे हर मानव के लिये लाभदायक हो सकते हैं। हमें अपने को भी इसी स्तर का बनाना चाहिये कि जो हमसे मित्रता करे उसे अपने सौभाग्य की सराहना करनी पड़े। सज्जनता और शालीनता ही सच्ची मित्रता का प्रयोजन पूरा करती है इसलिए मैत्री का अलिप्त एवं लाभ लेने अथवा देने वाले व्यक्ति में इन श्रेष्ठताओं का होना अनिवार्य रूप से आवश्यक है।

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